________________
विजयोदया टीका
३१.१ गीदत्थो चरणत्थो पच्छेदूणागदस्स खवयस्स ।
सव्वादरेण जु णिज्जवगो होदि आयरिओ ।।४०१॥ 'गोवत्यो चरणत्यो' गृहीतार्थः ज्ञानी चरणस्थः । 'पच्छेदूणागदस्स' प्रार्थयित्वागतस्य । ‘खवगस्स' क्षपकस्य । 'सव्वादरेण जुत्तो' सर्वादरेण युक्तः 'णिज्जवगो होइ आयरिओं' निर्यापको भवत्याचार्यः ।।४०१॥
संविग्गवज्जभीरुस्स पादमूलम्मि तस्स विहरंतो। .
जिणवयणसव्वसारस्स होदि आराधओ तादी ॥४०२॥ 'संविग्गवज्जभोरुस्स' संसारभीरोः, पापकर्मभीरोश्च तस्य गुरोः पादमूले वर्तमानो जिनवचनसर्वसारस्य भवत्याराधकः । 'तादि' यतिः । 'संते सगणे', 'गीदत्थो', 'सविग्गवज्जभीरु' इत्येतत्सूत्रत्रयेण परगणे चर्यायां गुणो व्याख्यातः । परगणचर्या ॥४०२।। . मार्गणानिरूपणार्थमुत्तरप्रवन्धः- .
पंचच्छसत्तसदाणि जोयणाणं तदो य अहियाणि ।
णिज्जावयमणुण्णादं गवेसदि समाधिकामो दु ॥४०३॥ पंचच्छसत्तसदाणि पञ्चषट्सप्तयोजनशतानि ततोऽभ्यधिकानि वा गत्वा अन्वेषते निर्यापकं । शास्त्रणअनुज्ञातं समाधिकामो यतिः ॥४०३।। स्पष्टार्थोत्तरगाथा
एक्कं व. दो व तिणि य वारसवरिसाणि वा अपरिदंतो। 'णिज्जवयमणुण्णादं गवेसदि समाधिकामो दु ॥४०४।।
... गा०-उस प्रार्थना पूर्वक आये हुए क्षपकका निर्यापक आचार्य ज्ञानी, चारित्र निष्ठ तथा उस क्षपकके प्रति पूर्ण आदर भावसे युक्त होता है ॥४०१॥ .. .
'गा-संसार और पापकर्मसे डरने वाले उस निर्यापक आचार्यके चरणों में विहार करता हुआ वह क्षपक यति समस्त जिनागमके सार रूप आराधनाका आराधक होता है ।।४०२॥ - 'संते सगणे', 'गीदत्थो', 'संविग्गवज्जभोरु' इन तीन गाथा सूत्रोंके द्वारा परगणमें चर्या करनेका गुण कहा है। इस प्रकार परगणमें चर्या करनेका गुण कहा है ॥४.२।।
आगे मार्गणाका कथन करते हैं
गा०--समाधिका इच्छुक यति पाँच सौ, छह सौ, सात सौ योजन अथवा उससे अधिक जाकर शास्त्रसम्मत निर्यापकको खोजता है ॥४०३॥
गा०-समाधिका इच्छुक यति एक अथवा दो अथवा तीन आदि बारह वर्ष पर्यन्त खेदखिन्न न होता हुआ जिनागम सम्मत निर्यापकको खोजता है ।।४०४॥
१. पंचच्छ सत्त जोयण सदाणि तत्तोऽहियाणि वा गंतु। णिज्जावगमण्णे सदि समाधिकामो अणुण्णाद-आ० मु०। २. जिणवयणम-आ० मु० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org