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विजयोदया टीका आलोयणापरिणदो सम्मं संपत्थिदो गुरुसयासं ।
जदि अंतरा हु अमुहो हवेज्ज आराहओ होज्ज ॥४०६।। 'आलोयणापरिणदो' रत्नत्रयातिचारान्मनोवाक्कायविकल्पान्मदीयान्गुरी निवेदयिष्यामीति कृतसंकल्पः । सम्म आलोचनादोषान्परित्यज्य 'संपत्थिदो' यातुमुद्यतः । 'गुरुसगासं' गुरुसमीपं । 'जदि अंतरा खु' यद्यन्तराल एव । 'अमुहो हवेज्ज' पतितजिह्रो भवेत् । 'आराहवो होज्ज' आराधको भवति ॥४०६।।
आलोचणापरिणदो सम्मं संपच्छिओ गुरुसयासं ।
जदि अंतरम्मि कालं करेज्ज आराहओ होइ ॥४०७।। 'आलोचणापरिणदो' स्वापराधकथनावहितचित्तः गुरुसमीपमागच्छतो यद्यन्तराल एव कालं कुर्यात् । 'आराधगो होइ' आराधको भवति ॥४०७॥
आलोयणापरिणदो सम्मं संपच्छिदो गुरुसयासं ।
जदि आयरिओ अमुहो हवेज्ज आराहओ होइ ।।४०८।। तथा आलोचनापरिणतः गुर्वन्तिकं प्रस्थितः आराधको भवति । यद्याचार्यो वक्तुमशक्तो जातः ॥४०८॥
आलोयणापरिणदो सम्मं संपच्छिदो गुरुसयासं ।
जदि आयरिओ कालं करेज्ज आराहओ होइ ॥४०९॥ आचार्यकालकरणेऽप्याराधको भवति इति सूत्रार्थः ॥४०९॥ . कथं भाराधकता तस्य ? न कृता आलोचना नाचरितं गुरूपदिष्टं प्रायश्चित्तमित्यारेकायागचष्टे
सल्ल उद्धारदुमणो संवेगुव्वेगतिव्वसड्ढाओ। जं जादि सुद्धिहेदु सो तेणाराहओ होइ ॥४१०।।
होती है ॥४०५॥
गा०-'मन वचन कायके विकल्प रूप रत्नत्रयमें लगे अतिचारोंको, आलोचनाके दोषोंको त्यागकर मैं सम्यग् रूपसे गुरुसे निवेदन करूँगा' ऐसा संकल्प करके जो गुरुके समीप जानेके लिए निकला, वह यदि मार्गमें ही अपनी बोलनेकी शक्ति खो बैठे तो भी वह आराधक होता है ।।४०६।।
गा०—मैं गुरुके पास जाकर अपने दोषोंकी सम्यक् आलोचना करूँगा, यह संकल्प करके जो गुरुके पास जानेके लिए निकला है वह यदि मार्गमें ही मर जाय तो भी आराधक है ।।४०७||
___ गा०-आलोचना करनेका संकल्प करके जो गुरुके पास जाने के लिए चला है। यदि आचार्य बोलने में असमर्थ हों तो भी वह आराधक है ।।४०८।।
गा०-जो गुरुके सन्मुख अपना अपराध निवेदन करनेके लिए गुरुके पास जानेके लिए निकला है, यदि आचार्य मर जायें तो भी वह आराधक है ।।४०९।।
जिसने गुरुके सन्मुख अपने अपराधको आलोचना नहीं की और न गुरुके द्वारा कहा गया प्रायश्चित्त ही किया वह कैसे आराधक होता है ? इस शंकाका समाधान करते हैं
गा०-टी०-किये गये अपराधकी आलोचना न करने पर मायाशल्य होता है। और माया४०
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