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भगवती आराधना
सल्लं उद्धरिदुमणो कृतापराधाऽनालोचनायां मायाशल्यं भवति । सति मायाशल्ये न रत्नत्रयशुद्धिरिति मत्वा शल्यमुद्धर्तुमनाः । 'संवेगुब्वेगतिव्त्रसड्ढाओ' संसारभीरुता संवेगः शरोरस्याशुचितामसारतां, दुःखदातृतां चावलोक्य, तथेन्द्रियसुखानामतृप्तिकारितां, तृष्णाभिवृद्धिनिमित्ततां च तत्रोद्व ेगः । तो संवेगो गौ, तीव्रा मरणकाले रत्नत्रयाराधना श्रद्धा च यस्य विद्यते स उच्यते संवेगुब्वेगतिव्वसड्ढाओ इति । अथवा संवेगोद्व ेगाभ्यां प्रवर्तिता तीव्रा श्रद्धा यस्य रत्नत्रयाराधनायां स एव भण्यते । 'जं जादि सुद्धिहेदु" यस्माच्छुद्धिनिमित्तं याति 'सो तेण आराहओ होवि' स तेन आराधको भवति ॥ ४१० ॥
निर्यापक सूर्यन्वेषणार्थ गच्छतो गुणमाचष्टे
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आयारजीदक पगुणदीवणा अत्तसोधिणिज्झंझा ।
अज्जवमद्दवलाघवतुट्टी पल्हादणं च गुणा ॥ ४११ ॥
'आयारजीद कष्पगुणदीवणा' आचारस्य जीदसंज्ञितस्य कल्पस्य च गुणप्रकाशना । एतानि हि शास्त्राणि निरतिचाररत्नत्रयतामेव दर्शयन्ति । तदर्थमेवान्वेषकः प्रयतते । 'अत्तसोधि' आत्मनः शुद्धिः । णिज्झंझा संक्लेशाभावः । न हि संश्लेशवानित्थं दूरं प्रयातुमीहते । स्वदोषप्रकटनान्माया त्यक्ता भवत्येव, तत एव माननिरासो मार्दवं । शरीरपरित्यागाहितबुद्धितया लाघवं । कृतार्थोऽस्मीति तुष्टिर्भवति । प्रस्थितस्य प्रल्हादनं हृदयसुखं च स्वपरोपकाराभ्यां गमितः कालः इत उत्तरं मदीय एव कार्ये प्रधाने उद्युक्तो भविष्यामि इति चिन्तया ||४११॥
इत्थं गुर्वन्वेषणार्थमायातं दृष्ट्वा तद्गणवासिनां सामाचारक्रमं व्याहरतिआएसं एज्जंतं अब्भुट्ठिति सहसा हु दट्ठूण |
आणा संग हवच्छल्लदाए चरणे य णादु जे ||४१२ ॥
शल्य के होने पर रत्नत्रयमें शुद्धि नहीं होती। ऐसा मानकर जो शल्यको निकालनेका भाव रखता है । तथा संसारसे भयभीत होनेको संवेग कहते हैं । और शरीरकी अशुचिता, असारता और दुःखदायकताको देखकर तथा इन्द्रियजन्य सुखोंको अतृप्ति करनेवाले तथा तृष्णाको बढ़ानेवाले जानकर उनमें विरक्ति होना उद्वेग है । जिसके संवेग और उद्व ेग होते हैं तथा मरणकालमें रत्नत्रयकी तीव्र आराधना और श्रद्धा होती है उसे 'संवेग उद्व ेग तीव्र श्रद्धावाला' कहते हैं । अथवा संवेग और उद्वेग द्वारा जिसकी रत्नत्रयकी आराधनामें तीव्र श्रद्धा होती है वह संवेग उद्वेग तीव्र श्रद्धावाला होता है। ऐसा वह क्षपक शुद्धिके लिए गुरुके पास जाता है इससे वह आराधक होता हैं ॥ ४१० ॥
गा० टी० –निर्यापक आचार्यकी खोज में जाते हुए क्षपकके गुण कहते हैं- आचार और जीतकल्प (आचार विशेषका प्रतिपादक ग्रन्थ) के गुणों का प्रकाशन होता है । ये शास्त्र निरतिचार रत्नत्रय को ही बतलाते हैं । उसीके लिए क्षपक निर्यापककी खोज करता है । आत्माकी शुद्धि होती है । संक्लेशका अभाव होता है क्योंकि जो संक्लेश परिणाम वाला होता है वह इस प्रकार दूर गमन नहीं करता । तथा गुरुके पास जाकर अपने दोषोंको प्रकट करनेसे मायाचारका त्याग होता ही है । इसीसे मानका निरास मार्दव भी होता है | शरीरको त्यागनेका भाव होनेसे लाघव होता है । मैं कृतार्थ हूँ इस प्रकार सन्तोष होता है । 'मैंने अपने और परके उपकारमें समय बिताया । अब आगे अपने ही कार्यमें प्रधान रूपसे उद्यत रहूँगा' ऐसे विचारसे हृदय में सुख होता है । इस प्रकार गुरुके पास जानेके गुण हैं ||४११॥
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