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विजयोदया टीका
३१७ कथं वास्यार्थ व्याचष्टे । स्वनिवासदेशाद्दूरे हस्तमात्रादिपरिमाणे स्थण्डिले, निर्जन्तुके निश्छिद्रे, समे, अविरोधे मार्गजनेनानवलोक्ये कि स्वशरीरमलं त्यजति उतातो विपरीते इति विहारे परीक्षा | भिक्षाग्रहणे परीक्षा नाम भ्रामयाँ यां काञ्चिभिक्षां गृह्णाति लब्धामुत नवकोटिपरिशुद्धामिति ॥४१४॥
आगन्तुको यतिगुरुमुपाश्रित्य सविनयं संघाटकदानेन भगवन्ननुग्राह्योऽस्मीति विज्ञापनां करोति । ततो गणधरेणापि समाचारज्ञो दातव्यः संघाटक इति निगदति
आएसस्स तिरत्तं णियमा संघाडओ दु दादव्यो ।
सेज्जा संथारो वि य जइ वि असंभोइओ होइ ॥४१५।। ‘आएसस्स तिरत्तं' प्राघूर्णकस्य च त्रिरात्रं । "णियमा संघाडओ दु दावव्वो' निश्चयेन संघाटको दातव्य एव । 'सेज्जा संथारो विय' वसतिः संस्तरश्च दातव्यः । 'जवि वि असंभोइओ होइ' । यद्यप्यपरीक्षित्वात्सहानाचरणीयो भवति । तथापि संघाटको दातव्यो भवति । युक्ताचारश्चेत्संगृह्यते ॥४१५॥ दिनत्रयोत्तरकालं किं कार्य गुरुणेत्याशङ्कायां वदति
तेण परं अवियाणिय ण होदि संघाडओ द दादव्वो ।
सेज्जा संथारो वि य गणिणा अवि जुत्तजोगिस्स ॥४१६॥ 'तेण गणिणा' तेन गणिना। 'पर' दिनत्रयात् । 'अवियाणिय' अविचार्य । स्वदत्तसंघाट यतिवचन
लं। त शब्द एवकारार्थे प्रवर्तते स च दादवो इत्येतस्मात्परतो द्रष्टव्यः । न दातव्य एव संघाटकः । 'सेज्जा संथारो वा' वसतिः संस्तरो वा न दातव्यः । जुत्तजोगिस्सवि युक्ताचारस्यापि न
है और कैसे उसका अर्थ करता है ? अपने निवास देशसे दूर, एक हाथ आदि प्रमाण, जन्तुरहित, छिद्ररहित, सम और जिसमें किसीका विरोध नहीं, रास्ता चलते लोग जिसे देख नहीं सकते ऐसे स्थंडिल प्रदेशमें यह अपने शरीर मलको त्यागता है या इससे विपरीतमें त्यागता है यह बिहारकी परीक्षा है। भिक्षाग्रहणमें परीक्षाका मतलब है कि भ्रामरीमें यह जैसी तैसी भिक्षा ग्रहण करता है या नौ कोटिसे शद्ध भिक्षा ग्रहण करता है।।४१४॥
आने वाला यति गुरुके पास सविनय उपस्थित होकर निवेदन करता है कि भगवान् साहाय्य प्रदान करके मुझपर अनुग्रह करें। उसके पश्चात् आचार्यको भी आचारके ज्ञाता उस आगन्तुक यतिको साहाय्य देना चाहिए। ऐसा कहते हैं
गा०-उस आगन्तुक यतिको नियमसे तीन रात तक साहाय्य देना चाहिए। तथा रहनेको वसति और संस्तर देना चाहिए । यद्यपि अभी उसकी परीक्षा नहीं ली है इससे वह साथमें आचरण करने योग्य नहीं है फिर भी यदि उसका आचार उचित है तो उसे साहाय्य देना चाहिए ॥४१५॥
गा०-तीन दिनके पश्चात् गुरु क्या करे, यह कहते हैं-तीन दिनके पश्चात् उस आचार्यको उस यतिके वचनको सुननेके पश्चात् जो साहाय्य दिया था वह साहाय्य बिना विचार नहीं देना चाहिए। 'दु' शब्दका अर्थ एवकार (ही) है और उसे 'दादव्वो' के आगे रखना चाहिए। अतः उसे साहाय्य नहीं ही देना चाहिए, वसति अथवा संस्तर नहीं देना चाहिए। उसका आचार उचित भी हो तो भी उसे परीक्षा किये बिना साहाय्य आदि नहीं देना चाहिए । जब युक्ताचारको
१. 'अविजुत्तजोगिस्स'-आ० मु० ।
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