________________
३१८
भगवती आराधना
दातव्यः संघाटकादिः परीक्षामन्तरेण किं पुनरितरस्येत्याशयः ॥४१६।।
अविचार्य तेन सहावस्थानेको दोषो येनैवं यत्नः क्रियते इत्यारेकायां दोषमाचटे-उगम उप्पादणे सणासु सोधी ण विज्जदे तस्स । अणगारमणालोइय दोसं संभुज्जमाणस्स || ४१७॥
'उगम उप्पादणे सणासु उद्गमोत्पादनंषणादोषपरिहारो न विद्यते तस्य गणिनः । 'अणगारं' यति । 'अणालोइय दोसं' अनालोचितदोषं । 'संभुज्जमाणस्स' संगृहृतः । उद्गमादिदोषोपहतमाहारं वसति, उपकरणं वा सेवते यः यतिः तेन सह संवासात् संवासानुमति कुर्वता नानुमतिस्त्यक्ता भवति इति ॥४१७॥ उव्वादो तद्दिवसं विस्सामित्ता गणिमुवट्ठादि ।
उद्धरिदुमणोसल्लं विदिए तदिए व दिवसम्मि ||४१८ ||
'उठबावो' श्रान्तः स्थित्वा । तं दिवसं आगतदिनं । 'विस्समित्ता' विश्राम्य । 'गणिमुवट्ठादि' आचार्य ढौकते । 'उद्धरिदुमणो सल्लं' उद्धतु मनःशल्यं अतिचारं । 'विदिए तदिए व दिवसम्मि' द्वितीये तृतीये वा दिने । मार्गणापुरस्सरा क्रिया सर्वा मार्गणेत्युपन्यस्ता ||४१८||
कीदृग्गुणः सूरिरनेनोपाश्रित इत्याचष्टे
आयारखं च आधारखं च ववहारवं पकुव्वीय ।
आयवायविदसी तहेव उप्पीलगो चेव ॥ ४१९ ॥
'आयारवं च' आचारवान् । 'आधारवं च' आधारवान् । 'ववहारवं च' व्यवहारवान् । 'पकुव्वोय कर्ता । 'तहेव आयापायविदंसी' तथा आयापायदर्शनोद्यतः । 'उप्पीलगो चेव' अवपीडकः ॥ ४१९ ||
भी नहीं देना चाहिए तब अन्यकी तो बात ही क्या है, यह इसका अभिप्राय है || ४१६।।
यहाँ कोई शङ्का करता है कि विना विचारे उसके साथ रहने में क्या दोष है जो इतनी सावधानी करते हैं, इसका उत्तर देते हैं
गा०---जो यति अपने दोषोंकी आलोचना नहीं करता, तथा जो उद्गम आदि दोषोंसे दूषित आहार, वसति अथवा उपकरणका सेवन करता है, उसके साथ संवास करनेसे उस आचार्य - के उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषोंका परिहार रूप शुद्धि नहीं होगी । यदि वह आचार्य अन्य मुनियोंको उसके साथ रहनेकी अनुमति देता है तो भी उसकी अनुमोदनाका भागी होता है ॥ ४१७॥
गा० - मार्गके श्रमसे थका हुआ वह आगन्तुक मुनि अपने आनेके दिन तो विश्राम लेता है और दूसरे दिन मनमें शल्यकी तरह चुभने वाले दोषों को दूर करनेके लिये आचार्यके समीप जाता है । गुरुकी मार्गणा अर्थात् खोज पूर्वक की जानेवाली सब क्रियाएँ मार्गणा कही जाती हैं इसलिये यहाँ उनका मार्गणारूपसे कथन किया हैं ||४१८ ||
गा० - वह आगन्तुक किन गुणोंसे युक्त आचार्यका आश्रय लेता है, यह कहते हैं-आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, कर्ता, तथा रत्नत्रयके लाभ और विनाश को दिखाने वाला और अवपीडक ||४१९।।
१. एस-आ० मु० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org