________________
भगवती आराधना
'खुड्डा य खुड्डियाओ' क्षुल्लका, क्षुल्लिक्यः आर्याः कुर्युरारटनं । ततो ध्यानविघ्नोऽसंमाधिर्वा गणधरस्य भवतीति ॥ ३९६ ॥
३१०
कारुण्यं विवृणोति -
भत्ते वा पाणे वा सुस्साए व सिस्सवग्गम्मि ।
कुव्वतम्मि पमादं असमाधी होज्ज गणवदिणो ॥ ३९७ ||
'भत्तं वा पाणे वा' भक्ते पाने वा शुश्रूषायां वा प्रमादं शिष्यवर्गे कुर्वति गणपतेरसमाधिर्भवति ॥ ३९७ ॥
दे दोसा गणिणो विसेसदो होंति सगणवासिस्स ।
भिक्खुस्स वि तारिसयस्स होंति पाएण ते दोसा ||३९८ ||
'एदे दोसा गणिणो विसेसदो होंदि' एते दोषा विशेषतो भवन्ति स्वगणे वसतः । 'भिक्खस्स वि तारिसयस्स' भिक्षोरपि तादृशस्स उपाध्यायस्य, प्रवर्तकस्य वा भवन्ति प्रायेण ते दोषाः || ३९८॥ एदे सव्वे दोसा न होंति परगणणिवासिणो गणिणो ।
तम्हा सगणं पहिय वच्चदि सो परगणं समाधीए || ३९९ ।।
एदे सव्वे दोसा ण होंदि' एते सर्वे दोषा न भवन्ति । 'परगणणिवासिणो गणिणो' परगणनिवासिनो गणधरस्य । तस्मात्स्वगणं परित्यज्य व्रजति परगणं समाधये ।। ३९९ ।।
संते सगणे अहं रोचेदूणागदो गणमिमोति । सव्वादरसत्तीए भत्तीए वट्टइ गणो से || ४००॥
'संते सगणे' सत्यपि स्वगणे अस्मद्गणे जातरुचिरागतो गणमिममिति सर्वादरेण भक्त्या च गणो वर्तते ॥४०० ||
गा० - क्षुल्लक, क्षुल्लिकाएँ अर्थात् बालमुनि और आर्यिका भी गुरुका वियोग होते देख रो पड़ते हैं तो आचार्यके ध्यानमें विघ्न और असमाधि होती है ||३९६ ||
गा० - खानपान और सेवा टहलमें शिष्यवर्ग के प्रमाद करने पर आचार्यकी असमाधि हो सकती है । अर्थात् आचार्यको यह विकल्प पैदा हो सकता है कि हमने इनका उपकार किया और यह हमारी सेवा भी नहीं करते। इससे ध्यानमें विघात होनेसे समाधि बिगड़ सकती है || ३९७||
गा०-- ये दोष विशेष रूपसे अपने गणमें रहकर समाधि करनेवाले आचार्यके होते हैं । अन्य भी जो भिक्षु उपाध्याय या प्रवर्तक अपने गणमें रहकर समाधि मरण करते हैं उनके भी प्रायः ये दोष होते हैं ॥ ३९८ ॥
गा० – ये सब दोष दूसरे गणमें निवास करनेवाले आचार्यके नहीं होते । इसीलिए वह अपना गण छोड परगण में समाधिके लिए जाता है || ३९९||
गा० - अपने गणके होते हुए यह हमारे गणमें रुचि रखकर यहाँ आया है ऐसा मानकर दूसरा गण पूर्ण आदरके साथ शक्ति और भक्तिसे उसकी सेवामें लगता है ||४०० ॥ .
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org