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भगवती आराधना आज्ञाभङ्गो नास्तीत्यर्थः । 'णस्थि य असमाधाणं' नास्ति च असमाधिः । 'आण.कोम्मि वि कदम्मि' आज्ञाभङ्गे कृतेऽपि ममानुपकारिणो वचनमिमे किमर्थं कुर्वन्ति इति चेतः प्रणिधानात् ।।३८९।। ___ आज्ञाकोपदोषं अभिधाय द्वितीयं व्याचष्टे
खुड्डे थेरे सेहे असंवुडे दट्टण कुणइ वा परुसं ।
ममिकारेण भणेज्जो भणिज्ज वा तेहिं परुसेण ॥३९०॥ __'खुड्डे थेरे सेहे' क्षुल्लकान्स्थविरानमार्गज्ञांश्चः । 'असंवुडे' असंवृतान् असंयतान् । 'विठूण' दृष्ट्वा । 'कुणदि वा परुसं' करोति वा परुषं । 'ममिकारेण भणेज्जो' ममत्वेन वदेद्वा परुषं । 'भणिज्ज वा तेहिं परुसेण' भण्येत वा गणी तैः परुषं वचः ॥३९०॥ कलहं पूर्वान व्याचष्टे
पडिचोदणासहणदाए होज्ज गणिणो वि तेहिं सह कलहो ।
परिदावणादिदोसा य होज्ज गणिणो व तेसिं वा ॥३९॥ 'पडिचोदणासहणादाए' गुरुशिक्षासहनेन । 'होज्ज कलहो तेहि गणिणो वि' भवेत्कलहरतैः क्षुल्लकादिभिः सह गणिनः । 'परिदावणाविदोसा होज्ज' दुःखादिदोषा भवेयुः । 'गणिणो व तेसिं च' गणिनस्तेषां क्षुल्लकादीनां वा कलहः ।।३९१॥ ___ कलहपरिदावणादीय इत्येतत्सूत्रपदं प्रकारान्तरेणापि व्याचष्टे
कलहपरिदावणादी दोसे व अमाउले करतेसु ।
गणिणो हवेज्ज सगणे ममत्तिदोसेण असमाधी ।।३९२॥ 'कलहपरिदावणादी दोसे व' कलहं परितापादिदोषं वा। 'अमाकुले करतेसु' गणेन सह कुर्वत्सु क्षुल्लकादिषु । 'गणिणो हवेज्ज सगणे ममत्तिदोसेण असमाधी' गणिनो भवेन्ममतादोषेण असमाधिः ॥३९२॥
वहाँ शिक्षा आदि देनेका काम नहीं रहता। इससे वहाँ आज्ञा भंगका प्रश्न नहीं रहता। आज्ञा भंग होने पर भी वह मनमें विचारता है कि मैंने इनका कोई उपकार तो किया नहीं, तब ये मेरी आज्ञाका पालन क्यों करेंगे? अतः आज्ञा भंग होने पर भी असमाधि नहीं होती ॥३८९||
आज्ञाकोप दोषको कहकर दूसरे दोषको कहते हैं
गा०-गुणोसे हीन क्षुद्र मुनियों, तपसे वृद्ध स्थविरों और रत्नत्रय रूप मार्गको न जानने वालोंको असंयमरूप प्रवृत्ति करते हुए देखकर 'ये हमारे शिष्य हैं, संघके हैं। इस प्रकारके ममत्व भावसे उनके प्रति कठोर वचन कहा जाये अथवा वे क्षुद्र आदि उन्हें कठोर वचन कहें, यह दूसरा दोष है ।।३९०॥
पूर्वार्द्धसे कलह दोष कहते हैं
गा०-गुरुकी शिक्षाको सहन न करनेसे आचार्यकी भी उन क्षुद्र आदिके साथ कलह हो सकती है। और उससे आचार्यको अथवा उन क्षुद्र आदि मुनियोंको दुःख आदि दोष होते हैं ॥३९१॥
'कलहपरिदावणीदीय' इस गाथाका प्रकारान्तरसे कथन करते हैं
गा०-वे क्षुद्र आदि गणमें कलह परिताप आदि दोष करें तो उसे देखकर ममत्व भावसे आचार्यकी असमाधि हो सकती है ॥३९२।।
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