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विजयोदया टोका
३०३ सगणे व परगणे वा परपरिपवादं च मा करेज्जाह ।
__ अच्चासादणविरदा होह सदा वज्जभीरू य ॥३७१।। 'सगणे व परगणेवा परपरिवादं च मा करेज्जाह' आत्मीये गणे परगणे वा परापवादं मा कृथाः । 'अच्चासादणविरदा य होह' अत्यासादनतो विरता भवत । 'सदा वज्जभीरू य' पापभीरवश्च भवत ॥३७१।। परनिन्दया दोषमाचष्टे
आयासवेरभयदुक्खसोयलहुगत्तणाणि य करेइ ।।
परणिंदा वि हु पावा दोहग्गकरी सुयणवेसा ॥३७२।। स्पष्टार्था गाथा ॥३७२।। परनिन्दा किमर्थं क्रियते गुणित्वे स्थापयितुमात्मानमिति चेत्, तन्निराकरोति
किच्चा परस्स जिंदं जो अप्पाणं ठवेदुमिच्छेज्ज ।
सो इच्छदि आरोग्गं परम्मि कडुओसहे पीए ।।३७३।। 'किच्चा परस्स णिदं' परनिन्दां कृत्वा । 'जो अप्पाणं ठवेदुमिच्छेज्ज' य आत्मानं गुणितायां स्थापयितुमिच्छेत । 'सो इच्छदि स वांछति । कि 'आरोग्गं' नीरोगतां । 'परम्मि कडगोसधे पोदे' कटकौषधपायिन्यस्मिन् ॥३७२॥ सत्पुरुषक्रमं व्याचष्टे
दळूण अण्णदोसं सप्पुरिसो लज्जिओ सयं होइ ।
रक्खइ य सयं दोसंव तयं जणजेपणभएण ॥३७४॥ 'दठूण अण्णदोस' अन्यस्य दोपं दृष्ट्वा । 'सप्पुरिसो लज्जिओ सयं होदि' सत्पुरुषः स्वयं लज्जामुपैति । 'रक्खड़ सयं दोसं व' स्वदोषमिव च रक्षति । 'जणजपणभयेण' जननिन्दाभयेन ॥३७४।।
गा० - अपने गणमें अथवा दूसरे गणमें दूसरोंकी निन्दा नहीं करना चाहिये। तथा अति आसादनासे विरत रहो और सदा पापसे डरो ॥३७१।।
पर निन्दाका दोष कहते हैं
गा-परनिन्दा आयास, वैर, भय, दुःख, शोक और लघुताको करती है पापरूप है, दुर्भाग्यको लाती है और सज्जनोंको अप्रिय है ।।३७२।। __जो कहते हैं कि अपनेको गुणी कहलाने के लिये परनिन्दा की जाती हैं उनका निराकरण करते हैं
गा०-जो परको निन्दा करके अपनेको गुणी कहलानेकी इच्छा करता है वह दूसरेके द्वारा कडुवी औषधी पीनेपर अपनी नीरोगता चाहता है । अर्थात् जैसे दूसरेके औषधी पीनेपर आप नीरोग नहीं हो सकता। वैसे ही दूसरेकी निन्दा करके कोई स्वयं गुणी नहीं बन सकता ॥३७३||
___ गा०-सत्पुरुष दूसरोंके दोष देखकर स्वयं लज्जित होता है। लोकापवादके भयसे वह अपनी तरह दूसरोंके भी दोषोंको छिपाता है ॥३७४।।
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