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विजयोदया टीका
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मपि छायामशोभनां तद्वत्तां । सन्तोऽपि दोषा नश्यन्ति सुजनाश्रयेण ततस्ते समाश्रयणीया इति भावः ॥३५२।। सुजनसमाश्रयणे अभ्युदयफलं, पूजालाभं कथयति गाथा
कुसुममगंधमवि जहा देवयसेसत्ति कीरदे सीसे । ___ तह सुयणमज्झवासी वि दुज्जणो पूइओ होइ ।।३५३॥
कुसुममित्यादिका। यथा सौगन्ध्यरहितमपि कुसुमं देवताशेषेति क्रियते शिरसि तथा साधुजनमध्यवासी दुर्जनोऽपि पूजितो भवति ॥३५३।। द्रव्यसंयमे वाक्कायनिमित्तास्रवनिरोधरूपे प्रवृत्तिगुणं कथयति
संविग्गाणं मज्झे अप्पियधम्मो वि कायरो वि णरो।
उज्जमदि करणचरणे भावणभयमाणलज्जाहिं ।।३५४॥ संविग्गाणं मज्झे इत्यनया। संसारभीरूणां मध्ये वसन्यद्यपि धर्मप्रियो न भवति । कातरश्च' सुखे तथापि उद्युङ्क्ते पापक्रियानिवृत्तौ भावनया, भयेन, मानेन, लज्जया च ॥३५४॥ संसारभीरोरपि यतेः सुजनसमाश्रयणेन गुणमभिदधाति
संविग्गोवि य संविग्गदरो संवेगमज्झयारम्मि ।
होइ जह गंधजुत्ती पयडिसुरभिदव्वसंजोए ॥३५५।। संविग्गोऽपि इत्यनया । प्रागपि संसारभीरुर्जनः संविग्नमध्यनिवासी संविग्नतरो भवति । यथा गन्धयुक्तिः कृतको गन्धः प्रकृतिसुरभिद्रव्यगन्धसंसर्गे सुरभितरो भवति ।।३५५॥ आश्रय लेने पर कौवा अपनी असुन्दर छविको छोड़ देता है। इसका भाव यह है कि सज्जनोंकी सत्संगतिसे विद्यमान भी दोप नष्ट हो जाते हैं अतः सज्जनोंका आश्रय लेना चाहिए ॥३५२।।
सज्जनोंका आश्रय लेने पर अभ्युदय रूप फल और पूजाका लाभ होता है, यह कहते हैं
गा०-जैसे सुगन्धसे रहित भी फूल 'यह देवताका आशीर्वाद है' ऐसा मानकर सिर पर धारण किया जाता है उसी प्रकार सुजनोंके मध्यमें रहने वाला दुर्जन भी पूजित होता है ।।३५३।।
वचन और कायके निमित्तसे होने वाले आश्रवके रोकनेको द्रव्य संयम कहते हैं । उस द्रव्य संयममें प्रवृत्तिका लाभ कहते हैं
गा-जिसको धर्मसे प्रेम नहीं है तथा जो दुःखसे डरता है वह मनुष्य भी संसार भीरु यतियोंके मध्य में रहकर भावना, भय, मान और लज्जासे पापके कार्योंसे निवत्त होनेका उद्योग करता है ।।३५४॥
संसारसे भीत यति भी सज्जनोंका सत्संग करनेसे लाभान्वित होता है यह कहते है
गाo-जो मनुष्य पहले से ही संसारसे विरक्त है वह विरागियोंके मध्य में रहकर और भी अधिक विरागी हो जाता है। जैसे बनावटी गन्धसे युक्त द्रव्य स्वभावसे ही सुगन्धित द्रव्यकी गन्धके संसर्गसे और भी अधिक सुगन्धित हो जाता है ।।३५५।।
१. श्चदुःखे आ० । -श्चासुखे प० ।
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