________________
२९६
भगवती आराधना परदोसगहणलिच्छो परिवादरदो जणो खु उस्सूणं ।
दोसत्थाणं परिहरह तेण जणपणोगासं ॥३४९।। 'परदोसगहणलिच्छो' परदोषग्रहणेच्छावान् । 'परिवादरदो' परोक्षे परदोषवचने रतः । 'जणो' जनः ।
'उस्सणं ख' नितरामेव । तेण दोसत्थाणं परिहरहतेन दोषस्थानपरिहारं कुरुत । 'जणपणोगासं' जनजल्पनावकाशं ॥३४९।।
दुर्जनगोष्टी अनर्थमावत्यैहलौकिकमित्येतत्कथयति
अदिसंजदो वि दुज्जणकएण दोसेण पाउणइ दोसं ।
जह घुगकए नोसे हंसो य हओ अपावो वि ॥३५०॥ अदिसंजदो वि इत्यनया । अतीव संयतोऽपि दुर्जनकृतेन दोषेण प्राप्नोति । 'दोसं' अनर्थ । यथोलककतदोषनिमित्तं अपापोऽपि हंसो हतः ॥३५०॥ दुर्जनगोष्टया दोषान्तरमाचष्टे
दुज्जण संसग्गीए वि भाविदो सुयणमज्झयारम्मि ।
ण रमदि रमदि य दुज्जणमज्झे वेरग्गमवहाय ॥३५१।। 'दुज्जणसंसग्गीए वि भाविदो' दुर्जनगोष्टया भावितः। 'सुजणमज्झयारम्मि' सुजनमध्ये । 'ण रमदि' न रमते । 'रमदि य दुज्जणमझें' रमते दुर्जनमध्ये । 'वेरग्गमवहाय' वैराग्यं परित्यज्य ॥३५॥ सुजनसमाश्रयणे गुणख्यापनायोत्तरसूत्राणि
जहदि य णिययं दोसं पि दुज्जणो सुयणवइयरगुणेण ।
जह मेरुमल्लियंतो काओ णिययच्छविं जहदि ॥३५२।। 'जहदि य' जहाति निजमपि दोषं दुर्जनः सुजनमिश्रगुणेन । यथा मेरुसमाश्रयणे काको जहाति सहजा
गा-लोग दूसरोंके दोषोंको पकड़नेके इच्छुक होते हैं और परोक्षमें दूसरोंके दोषोंको कहने में रस लेते हैं । इसलिए जो दोषोंका स्थान है उससे अत्यन्त दूर रहो क्योंकि; ऐसा न करनेसे लोगोंको अपवाद करनेका अवसर मिल जाता है ।।३४९।।
'दुर्जनोंकी संगति अनर्थकारी है यह एक लोक प्रचलित कथाके द्वारा कहते हैं---
गा०-महान् संयमी भी दुर्जनके द्वारा किए गये दोषसे अनर्थका भागी होता है । जैसे उल्लूके द्वारा किए गये दोषके लिए निर्दोष भी हंस मारा गया ॥३५०॥
दुर्जनोंकी संगतिका अन्य दोष कहते हैं
गा०-दुर्जनोंको संगतिसे प्रभावित मनुष्यको सज्जनोंका सत्संग रुचिकर नहीं लगता। वह वैराग्यको त्यागकर दुर्जनोंमें ही रमता है ॥३५१॥
सज्जनोंके सत्संगमें गुणोंका कथन आगेकी गाथाओंसे करते हैंगा.-सज्जनोंकी संगतिके गुणसे दुर्जन अपना दोष भी छोड़ देता है । जैसे सुमेरु पर्वतका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org