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विजयोदया टीका
२९५ जो जारिसीय मेत्ती केरइ सो होइ तारिसो चेव ।
वासिज्जइ च्छरिया सा रिया वि कणयादिसंगेण ।।३४५॥ दृष्टान्तत्वनोपन्यस्ता मृत्तिका छुरिका च । तथा चोक्तं सुरभिणा व इदरेण इति ॥३४५।।
दुज्जणसंसग्गीए पजहदि णियगं गुणं खु सुजणो वि ।
सीयलभावं उदयं जह पजहदि अग्गिजोएण ॥३४६।। 'दुज्जणसंसग्गीए' दुष्टजनसंसर्गेण । 'पजहदि णियगं गुणं खु सुजणो वि' विजहाति स्वगुणं सुजनोऽपि । 'सीयलभावं जहा उदकं पजहाद' शैत्यं भावं यथा जहात्युदकं । 'अग्गिजोएण' अग्निसम्बन्धेन । साधुः स्वगुणं जहात्यनलसम्बद्धजलमिवेति सहजगुणत्यागे दृष्टान्तः ॥ ३४६।।। सशोभनगुणेन संसर्गात् तद्वत् स्वयमप्यशोभनगुणो भवतीति कथयति
सुजणो वि होइ लहुओ दुज्जणसंमेलणाए दोसेण ।
माला वि मोल्लगरुया होदि लहू मडयसंसिट्ठा ॥३४७॥ 'सुजणो वि होइ लहुओ' सुजनोऽपि भवति लघुः । 'दुज्जणसंमेलणाए दोसेण' दुर्जनगोष्ठीदोषेण। . 'मालावि मोल्लगरुया' मालापि सुमनसां मौल्येन लघ्वी। 'होइ' भवति। 'मडयसंसिठ्ठा' मृतकस्य संश्लिष्टा ॥३४७।। अदुष्टोऽपि दुष्ट इति शङ्ख्यते यतिः पावस्थादिगोष्ठया इत्येतदृष्टान्तेनाचष्टे
दुज्जणसंसग्गीए संकिज्जदि संजदो वि दोसेण ।
पाणागारे दुद्धं पियंतओ बंभणो चेव ॥३४८॥ दुज्जणसंसग्गीए इति स्पष्टार्था गाथा ॥३४८॥ जाती है तो संसर्गसे पुरुष पार्श्वस्थ आदिके गुणोंसे तन्मय क्यों न होगा ? ॥३४४॥
गा०-जो जिस प्रकारकी वस्तुसे मैत्री करता है वह वैसा ही हो जाता है । स्वर्ण आदिके संसर्गसे लोहेकी छुरी भी उसी रूप हो जाती है ॥३४५॥
गा-दुष्टजनके संसर्गसे सज्जन भी अपना गुण छोड़ देता है । जैसे आगके सम्बन्धसे जल अपने शीतल स्वभावको छोड़ देता है। आगके सम्बन्धसे जलकी तरह साधु भी अपना गुण छोड़ देता है । यह स्वाभाविक गुणके त्यागमें दृष्टान्त है ॥३४६।।
अशोभनीय गुण वाले मनुष्यके संसर्गसे मनुष्य उसीकी तरह स्वयं भी अशोभनीय गुणवाला हो जाता है, यह कहते हैं---
गा०-दुर्जनोंकी गोष्ठोके दोषसे सज्जन भी अपना बड़प्पन खो देता है। फूलोंकी कीमती माला भी मुर्दे पर डालनेसे अपना मूल्य खो देती है ॥३४७||
__ पार्श्वस्थ आदिके साथ संसर्ग करनेसे अच्छे भी यतिको लोग बुरा होनेकी शंका करते हैं, यह दृष्टान्त द्वारा कहते हैं
गा०-दुर्जनके संसर्गसे लोग संयमीके भी सदोष होनेकी शंका करते हैं। जैसे मद्यालयमें बैठकर दूध पीने वाले ब्राह्मणके भी मद्यपापी होनेकी शंका करते हैं ॥३४८॥
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