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द्वयेनानेन । अव्युच्छित्तिर्व्याख्याता ॥ ३२६॥
विजयोदया टीका
सिद्धिसुखे चेतसि एकाग्रता समाधिरित्युच्यते तदुपगूहनं कृतं भवतीत्याचष्टेगुणपरिणामादीहिं अणुत्तरविहीहिं विहरमाणेण ।
जा सिद्धिसुहसमाधी सा वि य उवगूहिया होदि || ३२७||
'गुणपरिणामावीहि य' गुणपरिणामः, श्रद्धा, वात्सल्यं, भक्तिः, पात्रलाभः, संधानं, तपः, पूजा, तीर्था - व्युच्छित्तिक्रियेत्येतैः । 'अणुत्तरविधीह' प्रकृष्टः क्रमैः । 'विहरमाणेण' आचरता । 'जा सिद्धिसुहसमाधी' या सिद्धिसुखैकाग्रता । 'सा वि य उवगूहिया होइ' साप्यालिङ्गिता भवति । कारणे ह्यादरः कार्ये समाधानमन्तरेण न प्रवर्तते । न हि साध्ये घटे चेतस्यसति तदुपायभूतदण्डादिकारणकलापे जनः प्रवर्तते । इह च गुणपरिणामादय उपायाः सिद्धिसुखस्य न च सिद्धिसुखैकाग्रतामन्तरेण ते युज्यन्ते इति भावः ॥ ३२७॥
अणुपालिदा य आणा संजमजोगा य पालिदा होंति । णिग्गहियाणि कसायिंदियाणि साखिल्लदा य कदा || ३२८||
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'अणुवालिदा या आणा' अनुपालिता च आज्ञा भवति वैयावृत्यं कुर्वता । केषां ? तीर्थकृदादीनां । एतेन 'आणा' इत्येतत्सूत्रपदं व्याख्यातं भवति । 'संजम जोगा य पालिदा होंति' इत्यनेन संयमपदव्याख्या कृता संयमेन सह सम्बन्धः आचार्यादीनाम् । 'पालिदा होंदि' रक्षिता भवन्ति । व्याध्याद्यापद्गतानां रोगपरीषहानसंक्लेशेन धारयितुमसमर्थानाम् । अथवा संयमयोगाश्च तपांसि अनशनादितपोविशेषाः रक्षिता भवन्ति स्वस्य परेषां च, करणानुमननाभ्यां स्वस्यापन्निरासेन स्वस्थतोपजात सामर्थ्यादीनां संयमसंपादनात् । परेषां सहायतां
और उसके अवयव व्यक्तिमें कथञ्चित् अभेद होता है यह इन गाथाओंके द्वारा माना है || ३२६|| अव्युच्छित्तिका कथन समाप्त हुआ ।
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सिद्धि सुखमें चित्तकी एकाग्रताको समाधि कहते हैं । वैयावृत्य से उसका उपगूहन होता है, यह कहते हैं
गा०-श्रद्धा, वात्सल्य, भक्ति, पात्रलाभ, सन्धान, तप, पूजा, तीर्थकी अव्युच्छित्ति (अविनाश) इत्यादि गुणोंका उत्कृष्ट क्रमके साथ आचरण करनेवाले मुनिको जो सिद्धि सुखमें एकाग्रता है, वह भी प्राप्त होती है; क्योंकि कार्य में समाधान हुए विना कारणमें आदर नहीं होता । यदि चित्तमें घट बनानेकी भावना न हो तो उसके उपायभूत जो दण्ड आदि कारण हैं उनमें मनुष्य प्रवृत्त नहीं होता । यहाँ गुणपरिणाम आदि सिद्धिसुखके उपाय हैं, सिद्धिसुख में एकाग्रताके विना वे उपाय नहीं हो सकते। यह अभिप्राय है || ३२७||
गा० - टी० -- ' जो वैयावृत्य करता है वह तीर्थंकरोंकी आज्ञाका पालन करता है। इस कथनसे गाथाके 'आणा' पदका व्याख्यान किया है । 'संयमयोगका पालन होता है' इस कथन से संयमपदका व्याख्यान किया है क्योंकि आचार्य आदिका संयमके साथ सम्बन्ध है । जो आचार्य आदि व्याधि आदि से पीड़ित होते हैं और विना संक्लेशके रोगपरीषहको सहने में असमर्थ होते हैं उनकी वैयावृत्य करनेसे संयमकी रक्षा होती है । अथवा 'संयमयोग' अर्थात् अनशन आदि तपके भेदोंकी रक्षा होती हैं । अपने भी और दूसरोंके भी तपकी रक्षा होती है। दूसरोंसें वैयावृत्य कराकर अथवा वैयावृत्य करने की अनुमोदना करके स्वास्थ्यको प्राप्तकर अपने तपकी रक्षा करता है तथा दूसरोंकी
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