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भगवती आराधना कि पुण ण पावेज्ज जणंजपणयं' किं पुनर्न प्राप्नुयाज्जनापवाद वा ? प्राप्नोति नियोगतः । केन ? 'अज्जासंसग्गीए' आर्यागोष्ठया। कः ? "तरुणो अबस्सुदो अणुकिट्ठतवचरित्तो य' तरुणो यतिरबहुश्रुतोऽनुत्कृष्टतपश्चारित्रश्च ॥३३४॥
जदि वि सयं थिरबुद्धी तहा वि संसग्गिलद्धपसराए ।
अग्गिसमीवे व घदं विलेज्ज चिनं खु अज्जाए ॥३३५।। 'जवि वि सयं थिरबुद्धी' यद्यपि स्वयं स्थिरबुद्धिः । 'तहा वि' तथापि। 'संसग्गिलद्धपसराए' संसर्गाल्लब्धप्रसरायाः । 'अज्जाए' आर्यायाः । 'चित्तं विलेज्ज' चित्तं द्रवति । किमिव ? 'अग्गिसमीवे व घदं' अग्निसमीपस्थं घृतमिव । न केवलमार्याजन एव परिहरणीयः किं तु-॥३३५।।
सव्वत्थ इत्थिवग्गम्मि अप्पमत्तो सया अवीसत्थो।
णित्थरदि बंभचेरं तन्विवरीदो ण णित्थरदि ॥३३६।। 'सम्वत्थ इत्यिवग्गम्मि' सर्वस्मिन्नेव स्त्रीवर्गे बालाकन्यामध्यमास्थविरासुरूपाविरूपेति विचित्रभेदे । 'अप्पमत्तो' अप्रमत्तः प्रमादरहितः । सदा 'अवोसत्थो' विश्वासरहितः । "णित्थरइ' निस्तरति 'बंभचेरं' ब्रह्मचर्य । 'तद्विवरीदो' तद्विपरीतः प्रमत्तः विश्वासवांश्च । 'गणित्थरदि' न निस्तरति ॥३३६॥ आर्यानुचरणे दोषं प्रकटयति
सव्वत्तो वि विमुत्तो साहू सव्वत्थ होइ अप्पवसो।
सो चेव होदि अज्जाओ अणुचरंतो अणप्पवसो ॥३३७।। 'सम्वत्तो वि विमुत्तो साहू सम्वत्थ होइ अप्पवसो' सर्वस्माद्वास्तुक्षेत्रादिकाद्विमुक्तः साधुः सर्वत्र भवति स्ववशः 'सो चेव' स एवात्मवशः । 'होइ' भवति । 'अणप्पवसो' अनात्मवशः । किं कुर्वन् ? 'अज्जाओ अणुचरंतो' आर्या अनुचरन् ॥३३७॥
गा-तब जो अवस्थामें तरुण हैं, बहुश्रुत भी नहीं हैं और न जो उत्कृष्ट तपस्वी और चारित्रवान हैं वे आर्याजनके संसर्गसे लोकापवादके भागी क्यों नहीं होंगे ? ॥३३४||
गा०-मुनि यद्यपि स्वयं स्थिर चित्तवाला हो फिर भी उसके संसर्गसे चित्तमें उल्लास पाकर आर्याका मन उसी प्रकार द्रवित होता है जैसे आगके समीपमें घी द्रवित होता है ।।३३५।।
__ गा०-तथा केवल आर्याओंका संसर्ग ही त्याज्य नहीं है, बल्कि जो बाला, कन्या, तरुणी. वद्धा. सरूप. कुरूप सभी प्रकारके स्त्रीवर्गमें प्रमाद रहित होता है और कभी भी उनका विश्वास नहीं करता वही साधु ब्रह्मचर्यको जीवन पर्यन्त पार लगाता है। जो उससे विपरीत होता है अर्थात् स्त्रियोंके सम्बन्धमें प्रमादी और विश्वासी होता है वह ब्रह्मचर्यको पार नहीं कर पाता ॥३३६॥ ___ आर्याके अनुचरणमें दोष बतलाते हैं
गा०-जो साधु घर, जमीन आदि समस्त परिग्रहोंसे मुक्त है वह सर्वत्र अपनेको वशमें रखता है। किन्तु वही साधु आर्याका अनुगामी होकर आत्मवशी नहीं रहता ॥३३७||
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