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विजयोदया टीका
२९१ 'अप्पट्ठियो ह जायदि' आत्मप्रयोजनपर एव जायते । ‘सज्झायं चैव कुम्वंतो' स्वाध्यायमेव कुर्वन् । वैयावृत्यकरस्तु स्वं परं चोद्धरतीति मन्यते ॥३३१।।
वज्जेह अप्पमत्ता अज्जासंसग्गमग्गिविससरिसं ।
अज्जाणुचरो साधू लहदि अकित्तिं खु अचिरेण ॥३३२।। 'वज्जेह' वर्जयत अग्निना विषेण सदृशः आर्याजनसंसर्गः । प्रमादरहितैर्भवद्भिस्त्याज्यः अज्जाणुचरों' आर्यानुचरः । 'साधू' साधुलहदि अकित्ति लभते अयशः 'अचिरेण' अचिरेण । चित्तसंतापकारितया अग्निसदृशता । संयमजीवितविनाशनाद्विषसदृशता । पापस्य अयशसश्च प्रायेण भीरुलोकोऽपि साध्वाचारः मिथ्यादृष्टिरसंयतोऽपि किं पुनविदितवेदितव्यस्य परिहार्यमशेष उद्यतः परिहतुं यतिजनः पापमयशश्च न परिहरेत् । तथा च श्लोकः
काये पातिनि का रक्षा यशो रक्ष्यमपाति यत् ।
नरः पतितकायोऽपि यशःकायेन धार्यते ॥ [ ] ॥३३२।। थेरस्स वि तवसिस्स वि बहुस्सुदस्स वि पमाणभूदस्स ।
अज्जासंसग्गीए जणजंपणयं हवेज्जादि ॥३३३।। 'थेरस्स' स्थविरस्य । 'तवसिस्स वि' अनशनादितपस्युद्यतस्यापि । 'बहुसुदस्स वि' बहुश्रुतस्यापि । 'पमाणभूदस्स' प्रमाणभूतस्य । 'अज्जासंसग्गीए जणपणयं हवेज्जादि'
'अज्जासंसग्गीए जणपणयं हवेज्जादि' आर्यापरिचयाज्जनापवादो भवति ॥३३३॥
किं पुण तरुणो अबहुस्सुदो य अणुकिट्ठतवचरित्तो । अज्जासंसग्गीए जणपणयं ण पावेज्ज ॥३३४॥
करता है वह तो अपने ही प्रयोजनमें लगा रहता है। किन्तु वैयावृत्य करनेवाला अपना और दूसरोंका उपकार करता है । अर्थात् केवल स्वाध्याय करनेवाले साधुसे वैयावृत्य करनेवाला विशिष्ट होता है। स्वाध्याय करनेवाले साधुपर विपत्ति आवे तो उसे वैयावृत्य करनेवालेका ही मुख ताकना होता है ॥३३१।।
गा-टी०-हे साधुजनो! आपको प्रमादरहित होकर आग और विषके तुल्य आर्याओंके संसर्गको छोडना चाहिए। आर्याके साथ रहनेवाला साध शीघ्र ही अपयशका भागी होता है। आर्याका संसर्ग चित्तको सन्तापकारी होनेसे आगके समान है और संयमरूपी जीवनका विनाशक होनेसे विषके समान है । साधु आचारवाले मिथ्यादृष्टि असंयमी लोग भी प्रायः पाप और अपयशसे डरते हैं। फिर जो सब कुछ जानते हैं और समस्त त्यागने योग्य पदार्थोके त्यागमें तत्पर रहते हैं वे साधुजन पाप और अपयशके कामसे क्यों नहीं दूर रहेंगे ? कहा भी है-शरीर नष्ट होनेवाला है उसकी रक्षा सम्भव नहीं है। यशकी रक्षा करने योग्य है जो नष्ट नहीं होता। शरीरके छूट जानेपर मनुष्य यशरूपी शरीरसे जीवित रहता है ॥३३२।।
गा०-वृद्ध, अनशन आदि तपमें तत्पर तपस्वी, बहुश्रुत और प्रमाण माना जानेवाला भी साधु आर्याजनके संसर्गसे लोकापवादका भागी होता है ॥३३३।।
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