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भगवती आराधना
वैयावृत्त्यं दशविधं आचार्योपाध्यायतपस्विशिक्षकग्लान गणकुलसंघसाघुमनोज्ञभेदेन । तत्राचार्यवैयावृत्यमाहात्म्यकथनायाचष्टे --
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आइरियधारणाए संघो सव्वो वि धारिओ होदि । संघस्स धारणाए अव्वोच्छित्ती कया होई || ३२५ ||
'आइरियधारणाए' आचार्यधारणातः, 'संघो सम्बो वि धारिदो होदि' सर्वः संघोऽवधारितो भवति । कथं ? आचार्यो हि रत्नत्रयं ग्राह्यति । गृहीतरत्नत्रयांस्तेषु द्रढयति । अतिचाराञ्जातानप्यपनयति । तदुपदेशबलेनैव गुण संहतिरूपतां धत्ते संघो नान्यथेति संघो धारितो भवति । संघधारणाया गुणमाचष्टे । संघस्स धारणाए अबोच्छिती का होदि' धर्मतीर्थस्याभ्युदयनिःश्रेयससुखसाधनस्य अव्युच्छित्तिः कृता भवति । उपाध्यायादयः सर्व एव साधयन्ति निरवशेषकर्मापायमिति साधुशब्देनोच्यन्ते ॥ ३२५॥
तेष्वन्यतमस्य साधोर्धारणायां गुणं कथयति -
साधुस्स धारणाए वि होइ तह चेव घारिओ संघो ।
साधू चेव हि संघो ण हु संघो साहुवदिरित्तो ॥ ३२६ ॥
'साधुस्त धारणाए' एकस्य साधोर्वैयावृत्यकरणेन धारणायां । 'होदि' भवति । 'तह चेव' तथैव आचार्यधारणातः संघधारणात् । 'धारिदो संघो' धारितो यतिसमुदायः । कथमेकस्य धारणायां समुदायधारणा, समुदायावयवयोर्भेदादित्याशंकायामाह - ' साधू चेव हि संघो' साधव एव हि संघः । 'ण हि संघो साधुवदिरित्तो' नैव संघो नामार्थान्तरभूतोऽस्ति साधुव्यतिरिक्तः । कथंचित्समुदायावयोरव्यतिरेक इति मन्यते गाथा
आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शिक्षक, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञके भेदसे वैयावृत्यके दस भेद हैं । उनमेंसे आचार्य वैयावृत्यका माहात्म्य कहते हैं
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गा० - टी० - आचार्यका धारण करनेसे समस्त संघ धारित होता है । क्योंकि आचार्य रत्नत्रय ग्रहण कराते हैं और जो साधु रत्नत्रयको धारण किये होते हैं उन्हें उसमें दृढ़ करते हैं । उत्पन्न हुए अतिचारोंको दूर करते हैं । आचार्य के उपदेशके प्रभावसे ही संघ गुणोंके समूहको धारण करता है अतः आचार्य के धारणसे संघका धारण होता है । आचार्यके विना संघका धारण सम्भव नहीं है । संघके धारणसे अभ्युदय और मोक्षके सुखका साधन जो धर्म है उस धर्मतीर्थंका विच्छेद नहीं होता । उपाध्याय आदि सभी समस्तकर्मों के विनाशकी साधना करते हैं इसलिए साधु शब्दसे उन सबका ग्रहण होता है ॥ ३२५ ।।
विशेषार्थ - धारणाका अर्थ है अपने धर्मकर्मकी शक्तिको भ्रष्ट करनेके निमित्तोंको दूर करके उसको शक्ति प्रदान करना । इसीको वैयावृत्य भी कहते हैं ।
उक्त आचार्यादिमें से किसी एक साधुकी धारणाके गुण कहते हैं -
गा० - टी० - जैसे आचार्यकी धारणासे संघकी धारणा होती है वैसे ही एक साधुकी धारणा से अर्थात् वैयावृत्य करनेसे साधु समुदायकी धारणा होती है ।
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शंका- एक साधुकी धारणासे सब साधु समुदायकी धारणा कैसे हो सकती है ? क्योंकि समुदाय और व्यक्ति में तो भेद है ? इसके उत्तरमें कहते हैं
समाधान - साधु ही संघ है ।
साधुओंसे भिन्न कोई संघ नामक वस्तु नहीं है । समुदाय
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