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भगवती आराधना पिंडं उवहि सेज्जं उग्गमउप्पादणेसणादीहिं ।
चारित्तरक्षण8 सोधितो होदि सूचरित्तो ।।२९१।। "पिंडं' आहारं, 'उहि' उपकरणं, 'सेज्ज' वसति । सोधितो शोधयन् । 'उग्गमउप्पावणेसणावोहिं' उद्गगमोत्पादनषणादिभिर्दोषैः । किमर्थं शोधयति ? 'चारित्तरक्खण' चारित्ररक्षणार्थ उदगमादिदोषं परिहरति । सुसंयत इति लोके यशो मे भविष्यतीति वा, स्वसमयप्रकाशने लाभो ममेत्थं भवतीति वा चेतस्यकृत्वेति भावः । एवंभूतः सुचरित्रो भवतीति यतिः ॥२९१।।
एसा गणधरमेरा आयारत्थाण वणिया सचे।
लोगसुहाणुरदाणं अप्पच्छंदो जहिच्छाए ।।२९२॥ 'एसा गणधरमेरा' एषा गणधरमर्यादा । 'सुत्ते वण्णिदा' सूत्रे निरूपिता। केषां ? 'आयारत्याणं' आचारस्थानां । पञ्चविधे आचारे ये स्थितास्तेषां गणिनां व्यवस्था सूत्रे वणिता । 'लोगसुहाणुरदाण' लोकानुवर्तिनां सुखेप्सूनां च । यथेच्छया असंयतजनसंसर्गः सुखादरश्च शास्त्रे निषिद्धः । तत्र ये वर्तन्ते स्वेच्छया तेषां 'अप्पच्छंदो' आत्मेच्छा एव केवला न तेषां गणधरमर्यादा सूत्रे वणिता। अथवा लोकसुखं नाम मृष्टाहारभोजनं, यथाकामं, मृदुशय्यासनं, मनोज्ञे वेश्मनि वसनं च तत्र रतानां विषयातराणामित्यर्थः ॥२९२॥
सीदावेइ विहारं सुहसीलगुणेहिं जो अबुद्धीओ ।
सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण णिस्सारो ॥२९३॥ 'सोदावेदि' मंदं करोति । 'विहार' चारित्रं रत्नत्रये प्रवृत्ति । 'सुहसीलगुणेहि सुखसमाधानाभ्यासः । 'जो अबुद्धिओ' यो बुद्धिरहितः । 'सो वरि लिंगधारी' स वृथालिंगी भवति, द्रव्यलिंगं धारयति । 'संजमसारेण णिस्सारो' संयमाख्येन इंद्रियप्राणसंयमविकल्पेन सारेण निःसारः केवलनग्नः स इति । एतदुक्तं भवति ॥२९३
गा०-आहार, उपकरण और वसतिका शोधन किये बिना जो उसका सेवन करता है वह साधु मूल स्थान नामक दोषको प्राप्त होता है और वह भ्रष्टश्रमण है ॥३९०॥
__ आहार, उपकरण और वसतिका जो उद्गम, उत्पादन और एषणा आदि दोषोंसे चारित्रकी रक्षाके लिए शोधन करता है वह सम्यक संयमी है। मेरा लोकमें यश होगा कि यह सुसंयमी है अथवा अपने आगमका प्रकाश करनेसे मुझे लाभ होगा ऐसा वह अपने मनमें नहीं सोचता। ऐसा यति ही सम्यक् चारित्र वाला होता है ॥२९१||
गा०-टी०-पाँच प्रकारके आचारमें स्थित जो गणो है उन गणियोंकी यह गणधर मर्यादा सूत्रमेंकही है । जो लोकके अनुसार चलने वाले सांसारिक सुखके इच्छुक हैं अथवा लोकसुख यानी मिष्टाहारका यथेच्छ भोजन, कोमल शय्या पर शयन, मनोहर घरमें निवास, इनमें जो रत हैं अर्थात् जो स्वेच्छाचारी है उनकी गणधर मर्यादा सूत्रमें नहीं कही है ॥२९२।।
गा०-टो०-जो बुद्धिहीन साधु सुखशील गुणोंके कारण रत्नत्रयमें प्रवृत्तिरूप चारित्रमें उदासीन रहता है वह केवल द्रव्यलिंगका धारी है और इन्द्रिय संयम तथा प्राणसंयमसे शून्य है ॥२९ ॥
१. व्यावर्णिता-आ० म०। २. सो नवरिलिंगी भवति द्रव्य-अ० । ३. निःसारः एत-आ० मु० । ४. इस गाथा पर टीका नहीं है ।
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