________________
२७६
भगवती आराधना संवरनिर्जरे महत्यौ संपादयतः । तस्माच्चैत्यभक्तिमुपयोगिनी कुरुत । 'विणयजुदा य' विलयं नयति कर्ममलमिति विनयः । ज्ञानदर्शनतपश्चारित्रविनया उपचारविनयश्चेति पञ्च प्रकारेण विनये युक्ता भवत । शास्त्रोक्तवाचनास्वाध्यायकालयोरध्ययनं श्रुतस्य श्रुतं प्रयच्छतश्च भक्तिपूर्वं कृत्वा, अवग्रहं परिगृह्य, बहुमानं कृत्वा, निह्नवं निराकृत्य, अर्थव्यञ्जनतदुभयशुद्धि संपाद्य एवं भाव्यमानं श्रुतज्ञानं संवरं निर्जरां च करोति । अन्यथा ज्ञानावरणस्य कारणं भवेत् ।
शंकाकांक्षादिनिरासो दर्शनविनयः ।
स च प्रयत्नेन भवद्भिः संपाद्योऽन्यथा शंकादिपरिणामा मिथ्यात्वमानयन्ति । दर्शनमोहनीयस्य चास्रवा भवन्ति । ततो मिथ्यादर्शननिमित्तकर्मवशादनन्तसंसारपरिभ्रमणं दुःखभीरूणां भवतां जायते । रूपरसगंधस्पर्शशब्देषु मनोज्ञामनोज्ञेषु सन्निहितेषु अनन्तकालाभ्यासाद्रागोप्रीतिश्च जायते । तथा कषायाश्च बाह्यमभ्यन्तरं च निमित्तमाश्रित्य प्रादुर्भवन्ति । ते चोत्पद्यमानाश्चारित्रं विनाशयन्ति । कर्मादाननिमित्तक्रियोपरमो हि चारित्रं । रागादयश्च कर्मादाननिमित्त क्रियास्तथा अशमनोवाक्कायक्रियाश्च कर्मादाननिमित्ताः। तथा षड्जीवनिकायबाधापरिहारमन्तरेण गमनं । मिथ्यात्वेऽसंयमे वा प्रवर्तकं वचनं साक्षात्पारंपर्येण वा जीवबाधाकरणं भोजनं अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितादाननिक्षेपौ शरीरमलोत्सर्गो जीवपीडाहेतरेताः कर्मपरिग्रहनिमित्ताः
अनुरागात्मक होता है, ज्ञान और दर्शनमें लगाता हैं। और वे ज्ञान और दर्शन महान् संवर और निर्जरा करते हैं । इसलिए उपयोगी चैत्य भक्ति करना चाहिए । कर्ममलको जो विलय करती है वह विनय है । ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय, तपविनय और उपचार विनय, इन पांच प्रकारकी विनयमें संलग्न रहो। शास्त्रमें जो वाचना और स्वाध्याय काल कहा है, उन कालोंमें श्रुतका अध्ययन, और श्रुतका दान भक्तिपूर्वक करके अवग्रह स्वीकार करके, बहुमान करके, निह्नवको दूर करके, अर्थशुद्धि, व्यंजन शुद्धि और अर्थ व्यंजन दोनोंकी शुद्धि करके । इस प्रकार आठ अंगोंके साथ भाया गया श्रुत ज्ञान संवर और निर्जरा करता है। ऐसा नहीं करनेसे ज्ञानावरणका कारण होता है।
शङ्का काँक्षा आदिको दूर करना दर्शन विनय है। आपको प्रयत्नपूर्वक शंका आदिको दर करना चाहिए। ऐसा न करनेसे शंका आदि परिणाम मिथ्यात्वको लाते हैं और दर्शनमोहनीयकर्मके आस्रव में कारण होते हैं। उससे मिथ्यादर्शनमें निमित्त मिथ्यात्वकर्मके कारण आप जैसे दुःख भीरुजनोंको अनन्त संसारमें परिभ्रमण करना पड़ता है। मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूप रस गन्ध स्पर्श और शब्दके मिलनेपर अनन्तकालके अभ्यासवश राग और द्वष उत्पन्न होते हैं। तथा बाह्य और अभ्यन्तर निमित्तका आश्रय पाकर कषायें उत्पन्न होती हैं। और वे उत्पन्न होकर चारित्रको नष्ट करती हैं। कर्मोंके ग्रहणमें निमित्त क्रियाओंके रोकनेको चारित्र कहते हैं। रागादि कर्मोंको ग्रहणमें निमित्त क्रिया है । अशुभ मन वचन और कायकी क्रिया भी कर्मोंके ग्रहणमें निमित्त होती है। तथा छहकायके जीवसमूहको बाधा न पहुँचाये विना गमन करना, मिथ्यात्व और असंयममें प्रवर्तक वचन बोलना, साक्षात् या परम्परासे जीवोंको बाधा करनेवाला भोजन करना, विना देखे और विना साफ किये वस्तुओंको ग्रहण करना और रखना, विना देखी और विना साफ की गई भूमिमें मलमूत्र त्यागना ये सब क्रियाएँ जीवोंको कष्ट पहुंचानेवाली हैं अतः
१. प्रकारे वि-आ० मु०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only.
www.jainelibrary.org