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विजयोदया टीका
२८३ भवन्ति । कथं ? 'णाणजलोवग्गहेण' ज्ञानजलोपग्रहेण । 'विज्झविदे' नष्ट मोहाग्नौ । 'डाहुम्मुक्का' दाहोन्मुक्ताः । 'दमेण' रागद्वेषप्रशमेन च । एतदुक्तं भवति-समीचीनज्ञानजलप्रवाहोन्मूलिताज्ञानवह्निप्रसरत्वं नाम यतीनां गुणः निर्वेदनत्वं चेति ॥३१४॥
णिग्गहिदि दियदारा समाहिदा समिदसव्वचेटुंगा ।
धण्णा णिरावयक्खा तवसा विधुणंति कम्मरयं ॥३१५।। 'णिग्गहिदिदियदारा' इन्द्रियं द्विविधं द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं इति । तत्र द्रव्येन्द्रियं पुद्गलस्कन्धा आत्मप्रदेशाश्च तदाधाराः । भावेन्द्रियं ज्ञानावरणक्षयोपशम इन्द्रियजनितो रूपाबूपयोगश्च । तत्रहोपयोगेन्द्रियं गहीतं तत्साहचर्यादागद्वषावमनोज्ञे मनोज्ञेच विषये प्रवृत्ती इह पापकर्मनिमित्ततया इन्द्रियद्वारशब्देनोच्यते । तेनायमर्थः-निगृहीतेन्द्रियविपयरागद्वेषा इति । 'समाहिदा' रत्नत्रये समवहितचित्ताः । 'समिदसव्वचेटठंगा' सम्यकप्रवृत्तसहाः । 'धण्णा' पुण्यवन्तः । “णिरावयक्खा' निश्चला इति केचिद्वदन्ति । अन्ये निरपेक्षाः । सत्कारं लाभं वानपेक्षमाणाः इति कथयन्ति । 'तपसा विधुणंति कम्मरयं तपसा कर्मरजोविधूननं कुर्वन्ति । . निगृहीतेन्द्रियत्वं, रत्नत्रयैकाग्रता, निरवद्यचेष्टावत्ता, सत्कारादेनिरपेक्षता, तपसि वृत्तता, कर्मरजोविधूननं च यत्तिगुणाः एतया गाथया सूचिताः ॥३१५।।
इय दढगुणपरिणामो वेज्जावच्चं करेदि साहुस्स ।
वेज्जावच्चेण तदो गुणपरिणामो कदो होदि ।।३१६।। 'इयं' एवं 'दढगुगपरिणामो' यतिगुणेषु व्यावणितेषु दृढपरिणामः । 'साधुस्स वेज्जावच्चं करेई' प्रवाहसे-आत्मा और शरीर आदिके भेद ज्ञानरूपी जलके प्रवाहसे मोहरूपी आगके नष्ट हो जाने से तथा रागद्वेषके शान्त हो जानेसे वे दाह से मुक्त हैं। आशय यह है कि सम्यग्ज्ञान रूपी जलके प्रवाहसे अज्ञानरूपी आगके फैलावको समाप्त कर देना और वेदना · रहित होना अर्थात् ज्ञानानन्दमय होना यतियों का गुण है ।।३१४॥ ___ गा०-टी०-इन्द्रियके दो भेद हैं द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । पुद्गल स्कन्धोंके और उनके आधार भूत आत्म प्रदेशोंके इन्द्रियाकार रचनाको द्रव्येन्द्रिय कहते हैं। और ज्ञानावरणके क्षयोपशम और इन्द्रियसे होने वाले रूपादि विषयक उपयोगको भावेन्द्रिय कहते हैं। इनमेंसे यहाँ उपयोगरूप इन्द्रियका ग्रहण किया है, क्योंकि उसकी सहायतासे मनको प्रिय और अप्रिय लगने वाले विषयों में राग द्वष होते हैं। पापकर्ममें निमित्त होनेसे यहाँ इन्द्रियद्वार कहा है अतः यह अर्थ होता है जिन्होंने इन्द्रियों के विषयोंमें होने वाले रागद्वषका निग्रह कर दिया है। जिनका चित्त रत्नत्रयमें लीन रहता है। जो ईर्याभाषा आदि चेष्टाएँ सम्यक रूप करते हैं और जो 'णिरावयक्खा' है। इसका अर्थ कोई 'निश्चल' कहते हैं और कोई निरपेक्ष कहते हैं अर्थात् जो सत्कार और लाभ की अपेक्षा नहीं करते । वे पुण्यशाली मुनि तपसे कर्म रूपी धूलिको नष्ट करते हैं । इस प्रकार इन्द्रियों का निग्रह करना, रत्नत्रयमें एकाग्र होना, निषि चेष्टाएँ करना, सत्कार आदि की अपेक्षा न करना, तप में लीन रहना और कर्म रूपी रजका दूर करना ये यतियोंके गुण इस गाथाके द्वारा कहे हैं ।।३१५॥
गा०-टी०-इस प्रकार ऊपर कहे यतिके गुणोंमें जिसका परिणाम दृढ़ होता है वह साधु की वैयावृत्य करता है । वैयावृत्य करने से गुण परिणाम होता है । आशय यह है कि इस यतिमें
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