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भगवती आराधना य' पात्रस्य लाभः । 'धाणं' संधानं । 'तव' तपः । पूया पूजा । 'अव्वुच्छित्ती य तित्थस्य' अव्युच्छित्तिश्च तीर्थस्य । 'समाधी य' समाधिश्च ॥३११॥
आणा संजमसाखिल्लदा य दाणं च अविदिगिंछा य ।
वेज्जावच्चस्स गुणा पभावणा कज्जपुण्णाणि ॥३१२।। 'आणा संजमसाखिल्लवा य' आज्ञा संयमसाहाय्यं च । 'दाणं च' दानं च । सर्वज्ञोपदिष्टवैयावृत्यकरणादाज्ञा संपादिता। आज्ञासंपादनमाज्ञासंयमः । परस्य वैयावत्त्यकृत उपकारः । रत्नत्रयस्य निरतिचारस्य दानं । 'संजमसाखिल्लदा य' संयमसाहाय्यमिति चार्थः । 'अविदिगिछा य' अविचिकित्सा च । 'वेज्जावच्चस्स गुणा' वैयावृत्यस्य गुणाः । 'पभावणा' प्रभावना च । 'कज्जपण्णाणि' कार्यनिर्वहणानि च ॥३१२॥ गुणपरिणामो इत्येतत्पदं व्याचष्टे
मोहग्गिणादिमहदा घोरमहावयणाए फुट्टतो।
डज्झदि हु धगधगंतो ससुरासुरमाणुसो लोओ ॥३१३। 'मोहग्गिणा' अज्ञानाग्निना । 'अदि महवा' अतिमहता, सकलवस्तुविषयतया महदज्ञानं तेन । 'डज्झदि' दह्यते । 'घोरमहावेदणाए' घोरया महत्या वेदनया । 'फुटतो' विशीर्यमाणः । 'धगधगंतो' धगधगायमानः । 'ससुरासुरमाणुसो लोगो' देवासुरमानुषैः सह वर्तमानो लोकः ॥३१३॥
एदम्मि णवरि मुणिणो णाणजलोवग्गहेण विज्झविदे ।
डाहुम्मुक्का होति हु दमेण णिव्वेदणा चेव ॥३१४॥ 'एदम्मि' एतस्मिन्लोके दह्यमाने । 'णवरि' पुनः । 'मुणिणो णिग्वेदणा चेवं होंति' मुनय एव निवेदना उसकी पीड़ित साधुके गुणों में वासना होती है कि मैं भी ऐसा बनूं । और जिस साधु की वैयावृत्य की जाती है उसकी सम्यक्त्व आदि गुणों में विशेष प्रवृत्ति होती है । इसके सिवाय श्रद्धा, वात्सल्य, भक्ति, पात्रका लाभ, सन्धान-अपने में जो गुण पूजा छूट गये हैं उनका पुनः आरोपण, तप, धर्म तीर्थ की परम्परा का विच्छेद न होना तथा समाधि, ये गुण हैं ॥३११॥
गा०–सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट वैयावृत्य करनेसे सर्वज्ञकी आज्ञाका पालन होता है। आज्ञा पालनसे आज्ञा संयम होता है । वैयावृत्य करने वालेका उपकार होता है। निर्दोष रत्नत्रय का दान होता है। संयम में सहायता होती है। विचिकित्सा-ग्लानि दूर होती है। धर्म की प्रभावना होती है और कार्यका निर्वाह होता है ॥३१२।।
. 'गुण परिणाम' पद का व्याख्यान करते हैं
गा०-अति महान मोहरूपी आगके द्वारा सुर असुर और मनुष्यों सहित यह वर्तमान लोक धक् धक् करते हुए जल रहा है। घोर महावेदनासे उसके अंग टूट फूट रहे है ॥३१३॥
विशेषार्थ-'यह मेरा है और मैं इसका हूँ' इत्यादि प्रत्यय रूप अज्ञान समस्त वस्तुओंके सम्बन्धमें होनेसे उसे अतिमहान कहा है। तथा लोकसे बहिरात्मा प्राणियों का समूह लिया गया है।
गा०-इस लोकके जलने पर भी मुनियों को कोई वेदना नहीं है। क्योंकि ज्ञानरूपी जलके
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