________________
विजयोदया टीका
२८१ मागानां तथा श्वापदैः, दुष्ट भूमिपालः, नदीरोधकः मार्या च तदुपद्रवनिरासः विद्यादिभिः । 'ऊमे' दुभिक्षे सुभिक्षदेशनयनं । 'वेज्जावच्च वृत्तं' वैयावृत्त्यमुक्तम् । 'संगहसारक्सगोवेई' संग्रहसंरक्षणाभ्यामुपेतः ॥३०८।। वैयावृत्याकरणं निन्दति
. अणिगूहिदबलविरिओ वेज्जावच्चं जिणोवदेसेण ।
जदि ण करेदि समत्थो संतो सो होदि णिद्धम्मो ॥३०९।। अनिगूहितेत्यादिना-अनिगूढवीर्यो यो वयावृत्त्यं जिनोपदिष्टं क्रमेण न करोति । शक्तोऽपि सन् स निधर्मो भवति धर्मान्निष्क्रान्तो भवति इति सूत्रार्थः ।।३०९॥ दोषान्तराणि व्याचष्टे
तित्थयराणाकोवो सुदधम्मविराधणा अणायारो।
अप्पापरोपवयणं च तेण णिज्जहिदं होदि ॥३१०॥ "तित्थयराणाकोधो' तीर्थकराणामाज्ञाकोपः । 'सुदधम्मविराहणा' श्रतोपदिष्टधर्मनाशनं । 'अगाचारो' आचाराभावः वैया वृत्त्याख्ये तपसि अवृत्तेः । 'अप्पापरोपवयर्ण च तेग णिज्यूहिवं होदि' आत्मा साधुवर्गः प्रवचनं च त्यक्तं भवति । तपस्यनुद्योगादात्मा त्यस्तो भवति, आपापकाराकरणाद्यतिवर्गः, श्रुतोपदिष्टस्याकरणादागमश्च त्यक्तः ।।१०।। गुणान्वयावृत्त्यकरणे कथयति गाथाद्वयेन
गुणपरिणामो सड्ढा वच्छल्लं भत्तिपचलंभो य ।
संधाणं तव पूया अन्वोच्छित्ती समाधी य ॥३११।। 'गुणपरिणामो' यतिगुणपरिणतिः । 'सड्ढा' श्रद्धा। 'वच्छल्लं' वात्सल्यं । 'भत्तो' भवितः । 'पत्तलंभो है, जंगली जानवरोंसे, दुष्ट राजासे, नदीको रोकने वालों से और मारी रोगसे जो पीड़ित हैं, विद्या आदिसे उनका उपद्रव दूर करना, जो दुभिक्षमें फंसे हैं उन्हे सुभिक्ष देशमें लाना, आप न डरें इत्यादि रूप से उन्हें धैर्य देना तथा उनका संरक्षण करना वेयावृत्य कहा है ॥३०८||
वैयावृत्य न करने की निन्दा करते हैं
गा०-अपने बल और वीर्यको न छिपाने वाला जो मुनि समर्थ होते हुए भी जिन भगवान के द्वारा कहे हुए क्रम के अनुसार यदि वैयावृत्य नहीं करता है तो वह धर्मसे वहिष्कृत होता है यह इस गाथा का अभिप्राय है ।।३०९।।
वैयावृत्य न करनेसे तीर्थङ्करोंकी आज्ञाका भंग होता है। शास्त्रमें कहे गये धर्मका नाश होता है । आचारका लोप होता है और उस व्यक्तिके द्वारा आत्मा, साधुवर्ग और प्रवचन का परित्याग होता है। तप में उद्योग न करनेसे आत्मा का त्याग होता है। आपत्ति में उपकार न करनेसे मुनिवर्गका त्याग होता है और शास्त्र विहित आचरण न करनेसे आगमका त्याग होता है ।।३१०॥
दो गाथाओं से वैयावृत्य करनेमें गुणों को कहते हैं· गा०-वैयावत्य करनेका पहला गुण है 'गुण परिणाम' अर्थात् जो वैयावृत्य करता है
३६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org