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विजयोदया टीका
२७९ निमित्तं । सापाये लोके आयुषः, शरीरस्य, बलस्य नीरोगतायाश्च विनाशे अविदितकाले सति, दावानलसमाने. मृत्यावायाति, लोकवनमिदं अशेषं भस्मसात्कतु अद्य इत्यपि सुचिरं निमेषमात्रेणापि मृत्युरेयात्' मासमर्द्धमासमृतुमयनं संवत्सरं वा प्रति वचनाधिकारः कस्माद्यावन्नायाति मृत्युस्तावत्तपस्युद्योगः कार्यः । न हि मृत्योर्देशनियमस्ति । स्थल एव प्रचारो यथा शकटादीनां समीरणपथ एव ज्योतिषां सलिल एव मीनमकरादीनां । कष्टतमस्य पुनरस्य मृत्योः स्थले, जले, वियति च विहृतिः । दहनस्य, सुधासुतेर्वा सुराधिपतेः प्रभंजनस्य शीतस्योष्णस्य वा, हिमान्या वा अप्रवेशदेशाः सन्ति न तथा मृत्योः । यथा वा निदानमानं व्याधीनां पित्तानिलश्लेष्मरूपमेव मृत्योः पुनरखिलमेव निदानं । वातस्य पित्तस्य कफस्य शीतोष्णयोर्वर्षा हिमातपानां शक्यः प्रतीकारविधिनं पुनः संसारे मृत्योः । हिमोष्णवर्षादीनां च कालो विदितोऽस्ति न तद्वदस्य । न वा हितमस्य
चिद्विद्यते । यथा राहुवदनकुहरे प्रवेशो निशापतेः । असत्यपि मृत्यूपनिपाते जीवतोऽपि कुरोगाशनिम्यो महद्भयं । यथा वियतो निपतत्यबुद्ध एवाशनिः । आयर्बलं रूपादयश्च । गुणास्तावदेव यावन्नोपैति रोगो देहं । यत्तु तन्त्वलग्नस्य फलस्य तावदपातो यावन्न श्वपुसनः । व्याधौ बाध्यमाने देहे न सुखेन शक्यते श्रेयः कर्तुं यथा वेश्मनि दह्यमाने समन्तान्न शक्यते प्रतीकारः । असत्सु वा रोगेषु रागशत्रुः सुहृन्मुखेन शत्रुरिव प्रवृद्धः यदा नरस्य चित्तं बाधते न तदा समेऽधिकारः । पित्तोदयो वैद्यशुभप्रयोगैः प्रशाम्येदपि, रागोदयस्य
इस विनाशशील लोकमें आयु, शरीर, बल और नीरोगताके विनाशका काल अज्ञात है । दावानलके समान मृत्यु इस समस्तलोकरूपी वनको जला डालनेके लिए आज या देरमें या क्षणमात्रमें अथवा एकमास, एकपक्ष, ऋतु दो, मास, छहमास अथवा एक वर्ष में कब आ जायेगी यह कहना
है । जबतक मृत्यु नहीं आती तबतक तपमें उद्योग करना चाहिए । मृत्युका कोई देश नियत नहीं है । जैसे गाड़ी आदि स्थलपर ही चलती है । ज्योतिषीदेव आकाशमें ही चलते हैं, मीन मगर आदि पानी में ही चलते हैं । किन्तु यह सबसे अधिक दुःखदायी मृत्यु जल, थल और आकाशमें विहार करती है । ऐसे देश हैं जहाँ आग, चन्द्रमा, इन्द्र, वायु, शीत, उष्ण अथवा बर्फका प्रवेश नहीं है । किन्तु ऐसा कोई देश नहीं जहाँ मृत्युका प्रवेश नहीं है । जैसे रोगोंका निदान बात पित्त कफ ही है । किन्तु मृत्युका निदान तो सब ही है । वात, पित्त, कफ, शीत, उष्ण, वर्षा, हिम, आप इन सबका प्रतीकार करनेकी विधि है । किन्तु संसारमें मृत्युका कोई इलाज नहीं है । शीतऋतु, ग्रीष्मऋतु, वर्षाऋतु आदिका काल तो ज्ञात है किन्तु मृत्युका काल ज्ञात नहीं है । जैसे चन्द्रमा राहुके मुख में प्रवेश करके उससे दूर जाता है उस तरह मृत्य के मुखमें प्रवेश करके निकलना सम्भव नहीं है । मृत्यु न भी आये और जीवन बना रहे तब भी कुरोगरूपी वज्रपातका महाभय रहता है । जैसे आकाशसे अचानक वज्रपात होता है वैसे ही अचानक रोगका आक्रमण होता है । आयु, बल और रूपादि गुण तभी तक हैं जबतक शरीर में रोग नहीं होता । तन्तुसे लगा फल तभी तक नहीं गिरता जबतक वायुको झोंका नहीं आता । शरीरके रोगसे पीड़ित होनेपर सुखपूर्वक आत्मकल्याण नहीं किया जा सकता । जैसे घरके चारों ओरसे जलनेपर प्रतीकार सम्भव नहीं होता । अथवा रोगोंके नहीं होनेपर रागरूपी शत्रु मित्रके रूपमें शत्रुकी तरह बढ़कर जब मनुष्य के चित्तको पीड़ा देता है तब समभाव कठिन होता है । पित्तका विकार वैद्यके कुशल प्रयोगों से शान्त हो भी सकता है । किन्तु प्राणीके लिए अहितकर रागके उदयको समाप्त
१. रेवान्न मा-आ० मु० ।
२. मुखे श-अ० ।
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