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भगवती आराधना 'दुस्सहपरीसहेहिं य' दुःसहैः परिषहैश्च । 'गामवचीकंटएहिं तिक्खेहि' आक्रोशवचनकण्टकैस्तीक्ष्णश्च । .'अभिभूदा वि य संता' पराभूता अपि संतः । 'माधम्मधुरं पमुच्चेह' मा कृथा धर्मभारत्यागं । ननु च 'दुस्सहपरीसहेहिं य अभिभूदा मा धम्मधुरं पमुच्चेहं' इत्यनेनैव आक्रोशपरीषहसहनं उपदिष्ट ? किमनेन 'गामवचीकंटएहिं' इत्यनेन ?। अयमभिप्रायः सूत्रकारस्य-सोढक्षदादिवेदनोऽपि न सहतेऽनिष्टं वचस्ततोऽतिदुष्करमपि तत्सोढव्यं इति दर्शनाय पृथगुपादानम् ।।३०३॥ तपस्युद्योगः सर्वप्रयत्नेन त्यक्तालस्यैर्भवद्भिः इत्युपदिशति
तित्थयरो चदुणाणी सुरमहिदो सिज्झिदव्वयधुवम्मि ।
अणिगूहिदवलविरिओ तवोविधाणम्मि उज्जमदि ।।३०४॥ 'तित्थयरो' तोथंकरः तरंति संसारं येन भव्यास्तत्तीर्थ । केचन तरंति श्रुतेन गणधरैलिंबनभूतैरिति श्रुतं गणधरा वा तीर्थमित्युच्यते । तदुभयकरणात्तीर्थकरः । अथवा 'तिसु तिदित्ति तित्थ' इति व्युत्पत्ती तीर्थशब्देन मार्गो रत्नत्रयात्मकः उच्यते तत्करणात्तीर्थकरो भवति । 'चउणाणी' मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानवान् । 'सुरमहिदो' सुरंश्चतुःप्रकारैः पूजितः स्वर्गावतरणजन्माभिषेकपरिनिष्क्रमणेषु । “सिझिदव्वगधुवम्मि' नियोगभाविन्यां सिद्धावपि । तथापि 'अणिमूहियबलविरिओ' अनुपह्न तबलवीर्यः । 'तवोविहाणम्मि' तपःसमाधाने । 'उज्जमदि' उद्योगं करोति ।।३०४।।
किं पुण अवसेसाणं दुक्खक्खयकारणाय साहूणं ।
होइ ण उज्जम्मिद सपच्चवायम्मि लोयम्मि ।।३०५।। किं पुण अबसेसाणं' किं पुनर्न प्रयतितव्यं अवशिष्टः साधुभिः । 'दुक्खक्खयकारणाय' दुःखविनाशन
टोo-शा-'दुःसह परीषहोंसे अभिभूत होकर भी धर्मकी धुराको मत त्यागो। इतना कहनेसे आक्रोश परीषहको सहनेका उपदेश दे दिया, फिर 'तीक्ष्ण आक्रोश वचन' आदिके कहने- की क्या आवश्यकता है ?
- समाधान-ग्रन्थकारका अभिप्राय यह है कि भूख आदिकी वेदनाको सहनेवाला भी : अनिष्टवचन नहीं सहता । अतः अति दुष्कर भी आक्रोश वचनको सहना चाहिए। यह बतलानेके लिए पृथक् ग्रहण किया है ।।३०३।। . ... आगे उपदेश देते हैं कि आलस्य त्यागकर आपको पूरे प्रयत्नसे तपमें उद्योग करना चाहिए
'. गा०-टो०-जिसके द्वारा भव्यजीव संसारको तिरते हैं वह तीर्थ हैं। कुछ भव्य श्रुत अथवा आलम्बनभूत गणधरोंके द्वारा संसारको तिरते हैं अतः श्रुत और गणधरोंको भी तीर्थ कहते हैं। इन दोनों तीर्थोको जो करते हैं वे तीर्थंकर हैं। अथवा 'तिसु तिदित्ति तित्थं' इस व्युत्पत्तिके
अनुसार तीर्थ शब्दसे रत्नत्रयरूप मार्ग कहा जाता है। उसके करनेसे तीर्थंकर होता है। वे 5.मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययज्ञानके धारी होते हैं। स्वर्गसे गर्भमें आनेपर, जन्माभिषेक और
तपकल्याणमें चार प्रकारके देव उनकी पूजा करते हैं। उनको सिद्धिकी प्राप्ति नियमसे होती है फिर भी वे अपने बल और वोर्यको न छिपाकर तपके विधानमें उद्यम करते हैं ॥३०४|| .... गा०--टी०-तब दुःखका विनाश करनेके लिए शेष साधुओंका तो कहना ही क्या है।
१. अभिभूता अ०। २. सहतोऽतिदुष्क-अ० ।
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