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विजयोदया टीका
२७३ पिंडं उवधिं सेज्जामविसोधिय जो खु भुजमाणोदु ।
मूलट्ठाणं पत्तो बालोत्तिय णो समणबालो ।।२९४।। य उद्गमादिदोषोपहृतमाहारं, उपकरणं, वसतिं वा गृह्णाति तस्य नेन्द्रियसंयमः, नैव प्राणसंयमः, न यतिन गणधर इति निगद्यते ॥२९४॥
कुलगामणयररज्जं पयहिय तेसु कुणइ ममत्तिं जो ।
सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण णिस्सारो ।।२९५।। 'कुलगामणयररज्ज' कुलं, ग्राम, नगरं, राज्यं च । 'पयहिय' परित्यज्य । तेसु कुणवि ममत्तिं जो' प्रामादिषु पुनः यः करोति ममतां । मदीयं कुलं, अस्मदीयो ग्रामः, नगरं, राज्यं चेति । यो हि यत्र ममतां करोति तस्य यदि शोभनं जातं तुष्यति अन्यथा द्वेष्टि, संक्लिश्यति वा । ततो रागद्वेषयोर्लाभे च वर्तमानः असंयतेष्वादरवात् (वत्त्वात्) कथमिव संयतो भवतीति भावः ।।२९५।।
अपरिस्साई सम्म समपासी होहि सव्वकज्जेसु ।
संरक्ख सचक्खुपि व सबालउड्डाउलं गच्छं ॥२९६।। 'अपरिस्साई' गुरुरयमिति शंकां विहाय निगदितानामपराधानां प्रकटनं मा कृथाः । 'समपासी चेव होहि कज्जेसु' कार्येषु सम्यक् समदर्येव च भव । 'संरक्ख सचक्खु पि व' परिपालय स्वनेत्रं इव । किं ? 'सबाल उढ्ढाउलं गच्छं' सबालवृद्धराकीणं गणं ॥२९६॥
णिवदिविहूर्ण खेचं णिवदी वा जत्थ दुट्ठओं होज्ज ।
पव्वज्जा च ण लब्भदि संजमघादों व तं वज्जो ॥२९७॥ "णिवदि विहूर्ण खेत्तं परिहर' नृपतिरहितं क्षेत्रं त्यज । "णिववि वा जत्थ दुट्ठओ होज्ज' नृपतिर्वा यस्मिन् देशे दुष्टो भवेत्तच्च क्षेत्र परित्यज । 'पग्वज्जा चण लन्भदि जत्थ' प्रव्रज्या च न लभ्यते यत्र क्षेत्र ।
गा-०टी०-जो उद्गम आदि दोषोंसे सहित आहार, उपकरण अथवा वसतिको स्वीकार करता है उसके न प्राणिसंयम है और न इन्द्रिय संयम है। वह केवल नग्न है । न वह यति है और न गणधर है ।।२९४॥
गा०-टी०-जो कुल, ग्राम, नगर और राज्यको छोड़कर भी उससे ममत्व करता है कि मेरा कुल है, हमारा गाँव है या नगर है राज्य है, वह भी केवल नग्न है । जो जिससे ममता करता है उसका यदि अच्छा होता तो उसे सन्तोष होता है अन्यथा द्वेष करता है अथवा संक्लेश करता है। इस तरह राग-द्वेष करने पर असंयतोंमें आदरवान होनेसे वह कैसे संयमी हो सकता है ॥२९५।।
गा०-टी०-'हमारा यह गुरु आलोचित दोषोंको दूसरेसे नहीं कहता। ऐसा मानकर शिष्योंके द्वारा प्रकट किये अपराधोंको किसी अन्यसे मत कहो । कार्यों में समदर्शी ही रहो। और बाल और वृद्ध यतियोंसे भरे गणकी अपनी आँखकी तरह रक्षा करो ॥२९६।।।
गा०-टी -जिस क्षेत्रमें कोई राजा न हो उस क्षेत्रको त्याग दो। अथवा जिस क्षेत्रका राजा १. असंयतो भवतीति-आ० मु०। २. गाथा २९५-२९६ ग० ।
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