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विजयोदया टीका
२७१ भवति तदेवान्वेषते न तत्त्वसमाधानवान् । 'विसग्गिभूदे कसाये य' कषाया हि क्रोधादयः स्वस्य परस्य च मृत्युं उपानयन्ति इति विषभूताः, हृदयं दहन्तीति दहनभूतास्तांश्च वर्जय । तथा चोक्तं-- त्रिलोकमल्लाः कुलशीलशत्रवो, मलानि दुर्माय॑तमानि चापि ते ।
यशोहरा हानिकरास्तपस्विनां, भवन्ति दौर्भाग्यकरा हि देहिनाम् ॥ १॥-[ ] न केवलं ते परलोकलोपिनः, इमं च लोकं क्रशयन्ति दारुणाः । न धर्ममात्रस्य च विघ्नहेतवो, धनस्य कामस्य च ते विघातकाः ॥२॥ इति-[ ] णाणम्मि दंसणम्मि य चरणम्मि य तीसु समयसारेसु ।
ण चएदि जो ठवेदु गणमप्पाणं गणघणी सो ॥२८८।। 'णाणम्मि दसणम्मि य' रत्नत्रये गणमात्मानं च यो न स्थापयित् समर्थो नैवासी गणधरः । ण च एदि न समर्थः । बहवो मम वशवर्तिनः सन्ति एतावता भव'तो गणित्वगर्वो माभूदिति भावः ।।२८८॥ कीदृक्तहि गणधरो भवतीति चेदेवंभूत इत्याचष्टे
'णाणम्मि दंसणम्मि य चरणम्मि य तीसु समयसारेसु ।
चाएदि जो ठवेंदु गणमप्पाणं गणधरो सो ॥२८९।। स्पष्टार्था गाथा ॥२८९॥
पिंडं उवहिं सेज्जं अविसोहिय जो हु भुजमाणो हु । मलठाणं पत्तो मलोत्ति य समणपेल्लो सो । २९०।।
प्रयत्न करता है तत्त्वका समाधान नहीं करता। क्रोधादि कषाय अपनी और दूसरेको मृत्युमें कारण होती हैं इसलिए वे विषरूप हैं और हृदयको जलाती हैं इसलिए आगके समान हैं। उन्हें छोड़ना चाहिए। कहा भी है
ये कषायें तीन लोकमें मल्लके समान हैं । कुल और शीलके शत्रु हैं । वे ऐसे मल हैं जिनको दूर करना सबसे कठिन है। ये कषायें तपस्वियोंकी हानि करने वाली और उनके यशको हरने वाली हैं तथा प्राणियोंके दुर्भाग्यको करने वाली हैं। 'वे कषायें केवल परलोकको ही नष्ट नहीं करतीं, किन्तु इस लोकको भी हीन करती हैं। वे केवल धर्ममें ही विघ्न नहीं डालती किन्तु अर्थ और काम की भी घातक हैं' ।।२८७।।
टो०-आगमके सारभूत तीन दर्शन ज्ञान और चारित्र रत्नत्रयमें जो गणको और अपनेको स्थापन करने में समर्थ नहीं है वह गणधर नहीं है। मेरे अधीन बहुतसे मुनि हैं इसलिए आपमें गणी होनेका घमण्ड नहीं होना चाहिए ॥२८८।।
तब गणधर कैसा होता है यह कहते हैं- गा०-आगमके सारभूत तीन सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्रमें अपनेको और गणको स्थापित करने में जो समर्थ होता है वह गणधर है ॥२८९।।
१. वतो न ग-अ०। २. अ० आ० प्रत्योः इयं गाथा ‘णाणम्मि दसणम्मि इति लिखिता, न सर्वा ।
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