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विजयोदया टीका
२६९ णिद्धमहुरगंभीरं गाहुगपल्हादणिज्जपत्थं च ।
अणुसिट्टि देइ तहिं गणाहिवइणो गणस्स वि य ।।२८२।। "णिद्ध' स्नेहसहितां । 'महुरं' माधुर्यसमन्वितां । 'गभीरं' सारार्थवत्तया गृहीतगाम्भीयाँ । 'गाहगं' ग्रा हिकां सुखाववोधां । 'पल्हादणिज्जपच्छं च' चेतःप्रल्हादविधायिनीं। 'पत्थं' पथ्यां हितां। 'अणुसिटिंठ देई' अनुशिष्टि ददाति । 'हि' तस्मिन्पूर्वोक्ते काले देशे च । 'गणाहिवइणो गणस्स वि य' गणाधिपतये गणाय च ॥२८२॥
वडढंतओ विहारो दंसणणाणचरणेसु कायव्वो।
कप्पाकप्पठिदाणं सव्वेसिमणागदे मग्गे ॥२८३|| "वड्ढ़तगो विहारो कायव्वो' वर्धमानविहारः कार्यः । दव ? 'सवेसि कप्पाकप्पट्ठियाणं अणागदे मग्गे' सर्वेषां प्रवृत्तिनिवृत्तिस्थितानां मुक्तिमार्गे। प्रमत्तसंयतादिगुणस्थानापेक्षया विचित्रो यतिधर्मः दसणवदसामायिकादिविकल्पेन प्रवृत्तिधर्मोऽपि विचित्ररूपः । तस्य सकलस्योपादानं सर्वेषामित्यनेन । कोऽसौ मार्ग इत्याशंकायामाह-सामान्येन 'दंसणणाणचरणेसु' सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु। चतुर्विकल्पगणोद्देशेनायमुपदेशः ॥२८३॥ सूरये कथयति
संखित्ता वि य पवहे जह वच्चइ वित्थरेण वडढंती ।
उदधिंतेण वरणदी तह सीलगुणेहिं वड्ढाहि ॥२८४।। 'संखित्ता वि य' संक्षिप्तापि च 'पवहे' प्रवाहे प्रवहत्यस्मादिति प्रवाहः उत्पत्तिस्थानं तत्र संक्षिप्तापि सती वरनदी । 'जह वच्चइ' यथा व्रजति । 'वित्थरेण' पृथुलतया । 'वडढंतो' वर्द्धमाना । 'उदधितेण' यावत्समुद्रं । 'तह सीलगुणेहि वड्ढाहि' तथा शीलगुणस्त्वं वर्धस्व ॥२८४।।
मज्जाररसिदसरिसोवमं तुम मा हु काहिसि विहारं ।
मा णासेहिसि दोण्णि वि अप्पाणं चेव गच्छं च ।।२८५॥ गा०-टो०-उस पूर्वोक्त शुभ तिथि आदिसे युक्त काल और देशमें गणाधिपति और गणको भी स्नेह सहित, माधुर्यसे युक्त, सारवान होनेसे गम्भीर सुखसे समझमें आने वाली, चित्तको आनन्द दायक और हितकारी शिक्षा देते हैं ।।२८२।।
___ गा०-टो०-सब प्रवृत्ति और निवृत्ति में स्थित मुनियों और गृहस्थोंको मुक्तिके मार्गमें सम्यग्दर्शन सम्यक् ज्ञान और सम्यक चारित्रमें वर्धमान विहार उत्तरोत्तर उन्नत अनुष्ठान करना चाहिए। यति धर्म प्रमत्त संयत आदि गुणस्थानोंकी अपेक्षा अनेक प्रकार है। प्रवृति रूप गृहस्थ धर्म भी दर्शन, व्रत सामायिकके भेदसे अनेक प्रकार हैं । उस सबका ग्रहण यहाँ 'सब' शब्दसे किया है। यह चारों प्रकारके संघको लक्ष्य करके आचार्य उपदेश देते हैं ॥२८३॥
नये आचार्यको कहते हैं
गान्टी०-उत्पत्ति स्थानमें छोटी सी भी उत्तम नदी जैसे विस्तारके साथ बढ़ती हुई समुद्र तक जाती है उसी प्रकार तुम शील और गुणोंसे बढ़ो ॥२८४॥
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