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भगवती आराधना गणेन संपाद्य क्रममाचष्टे-.
वंदिय णिसुडिय पडिदो तादारं सव्ववच्छलं तादि ।
धम्मायरियं णिययं खामेदि गणो वि तिविहेण ।।२८०।। 'वंदिय णिसुडिय पडिवो' अभिवद्य संकुचितपतितः । 'तादार' संसारदुःखात्त्रातारं । 'सव्ववच्छलं' सर्वेषां वत्सलं । 'तादि' यति । धम्मायरियं' दशविधे उत्तमक्षमादिके धर्म, स्वयं प्रवृत्तं अन्येषां प्रवर्तक । "णिययं' आत्मीयं । 'खामेवि गणो वि तिविहेण' क्षमां ग्राहयति गणस्त्रिविधेन । खमावणा समत्ता ॥२८०।। अनुशासननिरूपणार्थ उत्तरप्रबन्धः---
संवेगजणियहासो सुत्तत्थविसारदो सुदरहस्सो।
आदठ्ठचिंतओ वि हु चिंतेदि गणं जिणाणाए ॥२८१॥ 'संवेगजणिदहासो' संसारभीरुतया करणभूतया उत्पाटितहासः । परिग्रहेऽस्मिस्त्यक्ते अभ्यन्तराश्च रागादयः निमित्तापायादपयान्ति । तदपगमात्तन्मूलस्थितीनि कर्माणि प्रलयमुपव्रजन्ति । तेषु नष्टेष्वेव चतुर्गतिभ्रमणं नक्ष्यति' इति जात हर्षः। 'सुतत्थविसारदो' सूत्रे जिनप्रणीते तदर्थे च विसारदो निपुणः 'सुदरहस्सो' श्रुतप्रायश्चित्तग्रंथः । 'आदचितओ वि हु' आत्मप्रयोजनचिंतापरोऽपि । 'चितेदि गणं जिणाणाए' जिनानामाज्ञया गणचिन्तां करोति ॥२८१॥
और कठोर वचन कहे गये आपसे मैं उन सबकी क्षमा माँगता हूँ ॥२७९॥
गणके द्वारा किये जाने वाले कार्यको कहते हैं
गा०-ट्री०-वन्दना करके, पृथ्वीपर पाँचों अंगोंको स्थापित करके अर्थात् पञ्चांग नमस्कार करके संसारके दुःखोंसे रक्षा करने वाले सबको प्रिय अपने दश प्रकारके उत्तम क्षमादिरूप धर्ममें स्वयं प्रवृत्त और दूसरोंको प्रवृत्त करने वाले आचार्यसे गण भी मन वचन कायसे क्षमा माँगता है ॥२८०॥
क्षमाका प्रकरण समाप्त हुआ। आगे अनुशासनका कथन करते हैंगा०-टी०-संसारसे डरनेके कारण जिसे हर्ष प्रकट हुआ है अर्थात् इस परिग्रहका त्याग करने पर अभ्यन्तर रागादि अपने निमित्तका विनाश होनेसे चले जायेंगे क्योंकि बाह्य परिग्रह रागादिके उत्पत्तिमें निमित्त हैं अतः निमित्तके न रहनेसे नैमित्तिक रागादि भी नहीं रहेंगे। और रागादिके न रहनेसे रागादिके कारण बन्धने वाले कर्म नष्ट हो जायेंगे। उनके नष्ट होने पर चार गतियों में भ्रमण नष्ट हो जायेगा, इसलिए जिसे हर्ष उत्पन्न हुआ है, और जिन भगवान्के द्वारा कहे गये सूत्र और उसके अर्थमें जो निपुण है, जिसने प्रायश्चित्त शास्त्र सुना है वह आचार्य अपने प्रयोजनकी चिन्ता करते हए भी जिन भगवानकी आज्ञासे गणकी चिन्ता करता है। अर्थात् यद्यपि आचार्य संल्लेखना धारण करनेके लिए अपना गण त्यागकर दूसरे गणमें जानेके लिए तत्पर है फिर भी गणकी चिन्ता करके उसे उपदेश देते हैं ॥२८॥
१. इति विजित हर्षः आ० मु०।
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