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विजयोदया टीका
२४९ शब्देनोच्यते । आरामगृहं क्रीडार्थमायातानां आवासाय कृतं । एता विविक्ता वसतयः ।।२३३॥ अत्र वसने दोषाभावमाचष्टे--
कलहो बोलो झंझा वामोहो संकरो ममत्तिं च । - ज्झाणाज्झयणविघादो पत्थि विवित्ताए वसधीए ॥२३४॥ 'कलहो बोलो' । ममेयं वसतिस्तवेयं वसतिरिति कलहो न केनचित् अन्यजनरहितत्वात् । 'बोलो' शब्दबहलता। 'झंझा' संक्लेशो। 'वामोहो' वैचित्त्यं । 'संकरो' अयोग्यैरसंयतैः सह मिश्रणं । 'ममत्वं च' ममेदंभावश्च । 'गत्थि' नास्ति । 'ज्झाणज्झयणविघादों' ध्यानस्याध्ययनस्य च व्याघातः । उक्तः कलहादिर्न विद्यते । क्व ? 'विवित्ताए वसधीए' बिविक्तायां वसतौ । एकस्मिन्प्रमेये निरुद्धज्ञानसंततिानं । अनेकप्रमेयसंचारी स्वाध्यायः ॥२३४।।
इय सल्लीणमुवगदो सुहप्पवत्तेहिं तत्थ जोएहिं ।
पंचसमिदो तिगुत्तो आदट्ठपरायणो होदि ।।२३५।। 'इय' एवं । 'सल्लीणं' एकात्मतां 'उवगदो' उपगतः । केन ? 'जोहिं' योगः तपोभिनिर्वा । सुहप्पवहिं सुखप्रवृत्तः सुखेनाक्लेशेन प्रवृत्तः । 'पंचसमिदो' समितिपंचकोपेतः । 'तिगुत्तो' कृताशुभमनोवाक्कायनिरोधः । 'आदपरायणो होदि' आत्मप्रयोजनपरो भवति । एतेन कथ्यते--विविक्तवसतिस्थायी यतिनिष्प्रतिद्वन्द्वध्यानैः शुभैस्तपोभिर्वा स्वास्थ्यमुपगतः संवरं निर्जरां च स्वप्रयोजनं संपादयति इति ॥२३५।। संवरपूर्विकां निर्जरां स्तोतुमाह---
जं णिज्जरेदि कम्म असंवडो समहदावि कालेण ।
तं संवडो तवस्सी खवेदि अंतोमुहुत्तेण ।।२३६।। शिक्षाघर, किसीके द्वारा न बनाया गया स्थान, आरामघर-क्रीड़ाके लिए आये हुओंके आवासके लिये जो बनाया गया है ये सब विविक्त वसतियाँ हैं ।।२३३।।
इनमें रहने में कोई दोष नहीं है, यह कहते हैं
गा०—विविक्त वसतिमें कलह, शब्द बहुलता, संक्लेश, चित्तका व्यामोह, अयोग्य असंयमियोंके साथ सम्बन्ध, यह मेरी है ऐसा भाव, तथा ध्यान और अध्ययनमें व्याघात नहीं है ।।२३४॥
टी०-विविक्त वसतिमें यह मेरी वसति है यह तेरी वसति है इस प्रकार कलह नहीं होता क्योंकि वहाँ अन्य लोग नहीं होते। इसीसे ऊपर कहे अन्य दोष भी नहीं होते। ध्यान अध्ययनमें बाधा नहीं होती। एक पदार्थमें ज्ञानसन्ततिके निरोधको ध्यान कहते हैं और अनेक पदार्थों में संचारको स्वाध्याय कहते हैं ॥२३४||
गा०-इस प्रकार विविक्त वसतिमें निवास करनेसे विना क्लेशके सुखसे होनेवाले तप अथवा ध्यानके द्वारा बाह्यतपमें एकात्मताको प्राप्त यति पाँच समितियोंसे युक्त हुआ अशुभ मन वचनकायका निरोध करके आत्माके कार्यमें तत्पर होता है ।।२३५।।
टो०-यहाँ कहा है कि विविक्त वसतिमें रहनेवाला यति निर्विघ्न ध्यानके द्वारा अथवा शुभतपके द्वारा स्वास्थ्यको प्राप्त होकर संवर और निर्जरारूप अपने प्रयोजनको करता है ।।२३५।।
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