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भगवती आराधना
जनोऽसंयमे प्रवर्तते । शरीरमेवानथं हेतुरिति तपोऽपि न करोति । तेनाहितः शरीरस्नेहो विनाशितो भवति । 'उवसमो तहा परमो' तथा चोत्कृष्टश्चोपशमो भवति रागादेर्दुः करे तपसि वर्तमानस्य । किं च मम रागेण उपद्रवकारिणा । सति रागे हि नवकर्मबन्धो जायते । चिरन्तनकर्मरसोपबृंहणं च । सति चेत्थं मदीयः क्लेशो निष्फलो भवेदिति मनः प्रणिधानादुपशमः । 'जवणाहारो' परिमिताहारता इति केचिदाचक्षते । तत्र च गुणो नीरोगतादिकमिति । तथा चाहुमिताशिनः षड्गुणा भजन्ते इति । अपरे शरीरस्थितिमात्रहेतुराहारः जवणाहारशब्दः शरीरवाच्यः इति स्थिताः ॥ २४६ ॥
एवमित्यादिनोपसंहरति
एवं उग्गम उप्पादणे सणासुद्धभत्तपाणेण ।
मिदलहुयविरस लुक्खेण य तवमेदं कुणदि णिच्चं ॥२४७॥
'एवमेदं तवो णित्त्वं कुणदित्ति' पदघटना । ' एवं ' व्यावणितरूपेण | 'एवं' एतत् बाह्यं तपः । ' कुणदि' करोति । 'णिच्चं' नित्यं । ' उग्गमउप्पादणे सणासुद्धभत्तपाणेण' उद्गमोपादनंषणादोषरहितेन, भक्तेन पानेन च । कीदृग्भूतेन ? "मिदलहुगविरसलुक्खेण' परिमितेन लघुना, विरसेन, रूक्षेण । एवंभूतं शुद्ध माहारं भुक्त्वा तपः कुर्यान्नाशुद्धमिति भावः ।
उल्लीणोल्लीणेहिं य अहवा एक्कंतवड्ढमाणेहिं ।
सल्लिइ मुणी देहं आहारविधिं पयणुगिंतो ।। २४८ ॥
'उल्लीणोल्लीणेहि य' प्रवर्द्धमानेन हीयमानेन च तपसा चतुर्थषष्ठादिक्रमेणानशनतपोवृद्धिः । एकद्वि
शरीरसे स्नेहका विनाश होता है यह भी एक गुण है । शरीरके स्नेहसे ही मनुष्य असंयमका आचरण करता है । शरीर ही अनर्थका कारण है । इसीके स्नेहवश मनुष्य तप नहीं करता । अतः तपसे अहितकारी शरीरस्नेहका नाश होता है । दुष्कर तप करनेवालेके रागादिका उत्कृष्ट उपशम होता है । वह मनमें विचारता है, इस उपद्रवकारी रागसे मुझे क्या ? रागके होनेपर नवोन कर्मका बन्ध होता है, और पूर्वबद्धकर्मों में रसकी वृद्धि होती है । ऐसा होनेपर मेरा कष्ट सहन निष्फल है । ऐसे विचारसे उपशम होता है । 'जवणाहारो' - इसका अर्थ कोई 'परिमित आहार' करते हैं । उसमें नीरोगता आदि गुण हैं । कहा है 'परिमित भोजनमें छह गुण होते हैं ।' अन्य कुछ शरीरकी स्थितिमात्रमें हेतु जो आहार है वह जवणाहार है ऐसा कहते हैं || २४६ ॥
उक्त चर्चाका उपसंहार करते हैं
गा०- - कहे अनुसार उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषसे रहित भोजन और पानसे और परिमित, लघु, रसरहित और रूक्ष भोजन पानसे यह बाह्य तप नित्य यति करता है । इसका भाव है कि इस प्रकारका शुद्ध आहार खाकर तप करना चाहिए । अशुद्ध आहार करके नहीं ॥२४७॥
गा०—वर्द्धमान या हीयमान अनशन आदि तपोंसे अथवा सर्वथा वर्द्धमान तपोंके द्वारा आहारकी विधिको अल्प करता हुआ मुनि शरीरको कृश करता है || २४८||
टी० - चतुर्थ, षष्ठ आदिके क्रमसे अनशन तपकी वृद्धि होती है । एक दो आदि ग्रास कम १. कुर्यान्नशुद्ध - अ० । कुर्युः सुशुद्ध-आ० ।
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