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भगवती आराधना णिदाजओ य दढझाणदा विमुत्ती य दप्पणिग्धादो ।
सज्झायजोगणिव्विग्घदा य सहदुक्खसमदा य ।।२४३।। "णिहाजो य' निद्राजयश्च । प्रतिदिनमश्नतः रसवदाहारसेवापरस्य बहुभोजिनश्च निवाते सुखस्पर्श निरुपद्रवे च देशे शयानस्य निद्रा महती जायते, यया परवशो निश्चेतन इव भवत्याभपरिणामप्रवाहे च पतति, न च रत्नत्रयेण घटयति, तस्या जयो। 'दढझाणदा' दृढध्यानता च दुःखोपनिपाताच्चलति ध्यानाद भावितदुःखो यतिः । कृततपोभावनस्तु क्षुदादिपरीषहोपनिपातेऽपि सहते । “विमुत्तो य' विमुक्तिविशिष्टत्यागः अनशनादावुद्यतेन शरीरमेव त्यक्तं भवति तदेव दुस्त्यजं । 'दप्पणिग्धादो' असंयमकरणो यो दर्पस्तस्य निर्घातश्च कृतो भवति । 'सज्झायजोगणिग्विग्घदा य' वाचनानप्रक्षाम्नायधर्मोपदेशर्योगः संबन्धी यस्तस्य विघ्नाभावश्च । आहारार्थे भ्रमतः कथं स्वाध्यायः क्रियते ? बहुभोजनश्च उत्तानः स्वपिति आसितुमप्यसमर्थः । रसवदाहारभोजी आहारोष्मणा दह्यमान इतस्ततः परावर्तते । अविविक्तायां वसतौ वर्तमानः परेषां वचः शृण्वंस्तैः सह संभाषणं कुर्वन्नाधीते । विविक्तदेशस्थायी पुनर्निाकुलः स्वाध्याये घटते । 'सुहदुःखसमदा य' सुखेन हृष्यति दुःखेन दुष्यति इति रागद्वेषावन्तरेण सुखदुःखानुभवः सुखदुःखसमता । अशनं रसांश्च सुखसाधनभूतांस्त्यजता सुखे रागस्त्यक्तो भवति । क्षुदादिजनितवेदनोपनिपाते असंक्लेशात् दुःखे न च द्वेषोऽस्यास्तीति । 'बाहिरतवेण होदि हु' इत्यनेन पञ्चसूत्र'निविर्दिष्टानां प्रत्येकं संवन्धः ॥२४३।।
गा.-टो०-'णिद्दाजओय'-निद्राजय होता है। जो प्रतिदिन भोजन करता है, रसीले आहार के सेवनमें तत्पर रहता है, बहुत भोजन करता है, उसे वायुके प्रकोपसे रहित, सुखकारक स्पर्शवाले उपद्रवहीन देशमें सोने पर गहरी नींद आती है, जिसके अधीन होकर वह चेतनाहीन जैसा हो जाता है और अशुभ परिणामोंके प्रवाहमें गिर जाता है । वह रत्नत्रयमें नहीं लगता। उस निद्राका जय होता है । 'दढ़झाणदा' दृढ़ ध्यान होता है। जिस यतिको दुःख सहनेका अभ्यास नहीं होता, वह दुःख पड़ने पर ध्यानसे विचलित हो जाता है । किन्तु तपका अभ्यासी भूख आदि परीषह आने पर सहता है। 'विमुत्तीय' विमुक्ति अर्थात् विशिष्ट त्याग करता है क्योंकि जो अनशन आदिमें तत्पर रहता है वह तो शरीर ही को छोड़ देता है और शरीर ही को छोड़ना कठिन होता है। 'दप्पणिधादो'-असंयमको करने वाला जी दर्प है उसका भी पूरी तरहसे घात होता है। 'सज्झायजोगणिव्विग्घदाय'-वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेशके साथ जो सम्बन्ध है उसमें कोई विघ्न नहीं होता। आहारके लिए भ्रमण करने वाला साधु कैसे स्वाध्याय कर सकता है । बहुत भोजन करने वाला तो ऊपरको मुख करके सोता है वैठ भी नहीं सकता। रसीला आहार खाने वाला आहारकी ऊमासे इधर-उधर करवटे बदलता है। जो बहुजन संकुल वसतिमें रहता है वह दूसरोंकी बातें सुनकर उनके साथ बातचीत करता है, स्वाध्याय नहीं करता । किन्तु एकान्त स्थानमें रहने वाला व्याकुलता रहित होकर स्वाध्याय करता है। सुहदुखसमदाय'-सुखसे हर्षित होना और दुःखसे दुः खो होना राग-द्वेष है। उनके विना सुख-दुःख का अनुभव सुख-दुःख समता है। सुखके साधनभूत भोजन और रसोंको जो त्यागता है वह सुखमें रागको त्यागता है । भूख प्यासका कष्ट होने पर संक्लेश न होनेसे उसे दुःखमें द्वष नहीं होता।
१. त्रीनिदि-अ० मु० ।
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