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विजयोदया टीका
२५३
कषायनिमित्तवस्तुत्यागान्न कषायाणामवसरः इति । 'विसएसु' विषयेषु स्पर्शनादिषु । 'अणावरो होइ' अनादरो भवति औदासीन्यं जायते । तदौदासीन्यात् तदादरनिमित्तकर्मसंवरो भवतीति भावः । अशनस्य हि शक्लादिरूपे मृदुस्पर्श, सौगन्धे, रसे वादरस्त्यक्तो भवति अशनं त्यजता। तथा क्षीरादिकमपि त्यजता क्षीरादिरूपेषु ॥२४॥
कदजोगदाददमणं आहारणिरासदा अगिद्धी य ।
लाभालामे समदा तितिक्षणं बंभचेरस्स ।।२४२।। 'कदजोगदा' सर्वत्यागस्य पश्चाभाविनः योगश्च कृतो भवति बाह्येन तपसा । 'आददमणं' आत्मनो दमनं आहारे सुखे च योऽनुरागस्तस्य प्रशमनात् । 'आहारणिरासदा' आहारे नैराश्यं सम्पादितं प्रतिदिनं आहारगताशापरित्यागाभ्यासात् । सर्वत्यागकालेऽपि सुकरा भवत्याहारनिराशतेति भावः । 'अगिद्धी य' द्धिश्च अलंपटता च । क्व ? आहारे । न ह्याहारे गद्धिमान्लब्ध्वा तं त्यजति । लाभालाभे समदा लाभालाभयोः समता । लाभे च सत्याहारस्य हर्षाकरणात अलाभे च तथाऽकोपात् । यः स्वयमेव लब्धमपि त्यजति स कथमिव परेषामदाने दुर्मनीभवति । 'तितिक्खणं बंभचेरस्स' ब्रह्मचर्य च सोढं भवति । रसवदाहारत्यागादभिनवेऽसति शुक्रसंचये अनशने च संचितप्रलये सति न स्त्रीष्वनुरागो भवति इति भावः । तथा गलितशुक्राणां पुंसां वैमुख्यं अंगनासु प्रतीतमेव ॥२४२।।
ऐसा कहना माया कषाय है। मैं इस वसतिका स्वामी हैं यह लोभ कषाय है। इस तरह जो वस्तु कषायमें निमित्त हैं उनका त्याग करनेसे कषाय का अवसर नहीं रहता। (विसएसु अणादरो होई) स्पर्शन आदि विषयों में अनादर होता है अर्थात् उदासीनता होती है। विषयोंमें उदासीनतासे विषयोंमें आदर भाव रखनेके निमित्तसे बन्धने वाले कर्मोका संवर होता है यह भाव है। भोजनके त्यागसे भोजनके शुक्ल आदि रूपमें, कोमल स्पर्शमें, सुगन्धमें अथवा रसमें आदरका त्याग हो जाता है। तथा दूध आदिका भी त्याग करनेसे दूध आदिके रूप रस आदिमें आदरका त्याग हो जाता है ॥२४१।।
गा०-ट्री०-- 'कद जोगदा'-बाह्य तपसे मरणकालमें जो सर्व आहारका त्याग करना होता है उसका अभ्यास होता है । 'आत्मदमण'-आहार और सुखमें जो अनुराग है उसका प्रशमन होनेसे आत्माका दमन होता है । 'आहारणिरासदा'-प्रतिदिन आहार सम्बन्धी आशाके त्यागके अभ्याससे आहारके विषयमें निराशा सम्पन्न होती है। अभिप्राय यह है कि समस्त आहारका त्याग करने के काल में भी आहार सम्बन्धी इच्छाका विनाश सुकर होता है । 'अगिद्धीय'—और आहारमें लंपटता नहीं रहती । जिसको आहारमें गृद्धि है वह आहार पाकर उसे छोड़ नहीं सकता। 'लाभालाभे समदा'-लाभ और अलाभमें समता रहती है। आहारका लाभ होने पर हर्ष नहीं करता और अलाभमें क्रोध नहीं करता । जो स्वयं भी प्राप्त आहारको छोड़ देता है वह दूसरोंके न देने पर अपना मन खराब कैसे कर सकता है। 'तितिक्खणं बंभचेरस्स'-ब्रह्मचर्यको धारण करता है.। रसोले आहारके त्यागसे नवीन वोर्यसंचय नहीं होता और अनशनसे संचितवीर्य क्षय होता है तब स्त्रीमें अनुराग नहीं होता। तथा जिन पुरुषों में वीर्यहीनता होती हैं उनके प्रति स्त्रियोंकी विमुखता प्रसिद्ध ही है ।।२४२।।
१. हि भक्तादिरूपे-आ० ।
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