Book Title: Bhagavati Aradhana
Author(s): Shivarya Acharya
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 317
________________ २५० भगवती आराधना 'जं णिज्जरेदि कम्म' यत्कर्म निर्जरयति तपसा बाह्येन । कः ? 'असंवुडो' असंवृतः अशुभयोगनिरोधरहितः । 'सुमहदावि कालेण' सुष्ठु महता कालेनापि । 'तं' तत्कर्म 'खवेदि' क्षपयति । 'अंतामहत्तंण' अतिस्वल्पेन कालेन । कः ? 'संवुडो' संवतः गप्तिसमितिधर्मानप्रेक्षापरीषहजयपरिणतः। 'तवस्सी' तपस्वी अनशनादिमान् ॥२३६।। एवमवलायमाणो भावेमाणो तवेण एदेण । दोसेणिग्घाडतो पग्गहिददरं परक्कमदि ।।२३७।। एवमुक्तेन क्रमेण एतेन । 'तण भावमाणो' तपसा भावयन्नात्मानमुद्यतः । 'अवलायमाणो' अपलायमानः । कुतो दुर्धरात्तपसः । एवमवलोयमाणो इति क्वचित्पाठः । तत्रायमर्थ:-किल एवमेदेण तवेण भावेमाणो इति पदसंबन्धः । एवमेतेन तपसा भावयमानः अपलोयमाणो द्रव्यकर्म विनाशयन् इति । तदयुक्तं- अशब्दार्थत्वात् । 'दोसे' दूषयंति रत्नत्रयमिति दोषाः अशभपरिणामाः तान घातयन । 'पग्गहिददरं' नितरां । 'परक्कमदि' चेष्टते मुक्तिमार्गे ॥२३७।। यतिना निर्जरार्थिना एवंभूतं तपोऽनुष्ठेयं इति कथयति । सो णाम बाहिरतवो जेण मणी दुक्कदं ण उठेदि । जेण य सड्ढा जायदि जेण य जोगा ण हायति ।।२३८।। 'सो णाम बाहिरतवो' तन्नाम बाह्यं तपः । किं ? 'जेण मणो दुक्कडं ण उद्वेदि' येन तपसा क्रियमाणेन मनो दुष्कृतं प्रति नोत्तिष्ठते । 'जेण य सड्ढा जायदि' येन च क्रियमाणेन तपसा तपस्यभ्यंतरे श्रद्धा जायते । 'जेण य जोगा ण हायंति' येन च क्रियमाणेन पूर्वगृहीता योगा न हीयन्ते । तत्तथाभूतं तपोऽनुष्ठेयमिति यावत् ।।२३८॥ ____संवरपूर्वक निर्जराकी प्रशंसा करते हैं गा०-असंवृत्त अर्थात् अशुभयोगका निरोध न करनेवाला यति महान् कालके द्वारा भी जिस कर्मकी बाह्य तपके द्वारा निर्जरा नहीं करता उस कर्मको संवत् अर्थात् गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परीषहजयको करनेवाला तपस्वी अति स्वल्पकालमें क्षय करता है ।।२३६।। गा०-उक्तक्रमसे इस तपसे अपनेको तत्पर करता हुआ दुर्धरतपसे न डरकर रत्नत्रयको दूषित करनेवाले अशुभ परिणामोंको घातता है और अत्यन्त मुक्तिके मार्गमें चेष्टा करता है ॥२३७॥ टी०-कहींपर 'एवमवलोयमाणो' ऐसा पाठ है। 'एदेण तवेण भावेमाणो' पदके साथ उसका सम्बन्ध करके ऐसा अर्थ करते है-इस प्रकार इस तपसे भावना करता हुआ 'अपलोयमाण' अर्थात् द्रव्यकर्मका विनाश करता है। यह युक्त नहीं है क्योंकि यह शब्दार्थ नहीं है ॥२३७।। निर्जराके इच्छुक यतिको इस प्रकार तप करना चाहिए, यह कहते हैं गा०-उसीका नाम बाह्य तप है, जिस तपके करनेसे मन पापकी ओर नहीं जाता। और जिस तपके करनेसे अभ्यन्तर तपमें श्रद्धा उत्पन्न हो और जिसके करनेसे पूर्व में गृहीत योग-व्रत विशेष हीन नहीं होते । इस प्रकारका तप करना चाहिए ।।२३८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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