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भगवती आराधना
प्रतिमा न पूजयिष्यामीति, योगत्रयेण सस्थावरस्थापनापीडां न करिष्यामीति प्रणिधानं मनसः स्थापनाप्रत्याख्यानं । अथवा अहंदादीनां स्थापनां न विनाशयिष्यामि नैवानादरं तत्र करिष्यामि इति वा । अयोग्याहारोपकरणद्रव्याणि न ग्रहीष्यामीति चिंताप्रबंधो द्रव्यप्रत्याख्यानं योग्यानि वा निष्ठितप्रयोजनानि । संयमहानि संक्लेशं वा संपादयंति यानि क्षेत्राणि तानि त्यक्ष्यामि इति क्षेत्रप्रत्याख्यानं । कालस्य दुःपरिहार्यत्वात् कालसाध्यायां क्रियायां परिहतायां काल एव प्रत्याख्यातो भवतीति ग्राह्य। तेन संध्याकालादिष्वध्ययनगमनादिकं न संपादयिष्यामीति चेतः कालप्रत्याख्यानं । भावोऽशुभपरिणाम तन्न निर्वर्तयिष्यामि इति संकल्पकरणं भावप्रत्याख्यानं । तद्विविध मूलगुणप्रत्याख्यानमुत्तरगुणप्रत्याख्यानमिति । ननु च मूलगुणा व्रतानि तेषां प्रत्याख्यानं निरासो भविष्यत्कालविषयश्चेन्न स संवरार्थिना कार्यः, संवरार्थमवश्यमनुष्ठीयते इति । उत्तरगुणानां कारणत्वान्मूलगुणव्यपदेशो व्रतेपु वर्तते मूलगुणशब्दः मूलगुणश्च सः प्रत्याख्यानं च तत् इति मूलगुणप्रत्याख्यानं । व्रतोत्तरकालभावित्वादनशनादिकं उत्तरगुण इति उच्यते । उत्तरगुणश्च सः प्रत्याख्यानं च तदिति उत्तरगुणप्रत्याख्यानं । तत्र संयतानां जीवितावधिकं मूलगुणप्रत्याख्यानं । संयतासंयतानां अणुव्रतानि मूलगुणवतव्यपदेशभांजि भवंति । तेषां द्विविधं प्रत्याख्यानं अल्पकालिकं, जीवितावधिकं चेति । पक्षमासषण्मासादिरूपेण भविष्यत्कालं सावधिकं कृत्वा तत्र स्थूलहिंसानतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहान्नाचरिष्यामि इति प्रत्याख्यानमल्पकालिकम् ।
उच्चारण नहीं करूँगा, इस प्रकारका विचार नाम प्रत्याख्यान है । मैं आप्ताभासोंकी प्रतिमाको नहीं पूज़ंगा, मनवचनकायसे त्रस और स्थावरोंकी स्थापनाको पीड़ा नहीं पहुँचाऊँगा, इस प्रकारका मनका संकल्प स्थापना प्रत्याख्यान है। अथवा मैं अर्हन्त आदिकी स्थापनाको नष्ट नहीं करूँगा, न उसका अनादर ही करूँगा, इस प्रकारका मनका संकल्प स्थापना प्रत्याख्यान है।
अयोग्य आहार तथा उपकरण द्रव्योंको मैं ग्रहण नहीं करूंगा, इस प्रकारके चिन्ता प्रबन्धको द्रव्य प्रत्याख्यान कहते हैं । जो क्षेत्र संयमको हानि पहुंचाते हैं अथवा संक्लेश उत्पन्न करते हैं। उन्हें मैं छोड़ें गा इस प्रकारके संकल्पको क्षेत्र प्रत्याख्यान कहते हैं। कालको छोड़ना तो अशक्य जैसा है अतः काल साध्य क्रियाका त्याग करने पर कालका ही प्रत्याख्यान होता है ऐसा लेना चाहिये । अतः सन्ध्याकाल आदिमें अध्ययन गमन आदि नहीं करूँगा इस प्रकारके चित्तको काल प्रत्याख्यान कहते हैं । भावसे अशुभ परिणाम लेना । मैं अशुभ परिणाम नहीं करूँगा, इस प्रकारका संकल्प करना भाव प्रत्याख्यान है। उसके दो भेद हैं-मूलगुण प्रत्याख्यान और उत्तरगुण प्रत्याख्यान ।
शङ्का-मूलगुण व्रतोंको कहते हैं । उनका प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग भविष्यत् कालमें यदि किया जायेगा तो संवरके इच्छुक यतिको उसे नहीं करना चाहिये, उसे तो संवरके लिये व्रत अवश्य पालनीय होते हैं ?
समाधान-उत्तर गुणोंका कारण होनेसे व्रतोंको मूलगुण कहते हैं अतः मूलगुण रूप प्रत्याख्यान मूलगुण प्रत्याख्यान है । व्रतोंके उत्तर कालमें अनशन आदि होते हैं इसलिये उन्हें उत्तर गुण कहते हैं । यहाँ भी उत्तर गुणरूप प्रत्याख्यान उतरगुण प्रत्याख्यान है। उनमेंसे संयमियोंके जीवनपर्यन्त मूलगुण प्रत्याख्यान होता है। और संयमासंयमी श्रावकोंके अणुव्रत मूलगुणव्रत कहलाते हैं। उनके दो प्रकारका प्रत्याख्यान होता है-एक अल्पकालिक और दूसरा जीवनपर्यन्त । पक्ष, मास, छहमास आदि रूपसे भविष्यतकालकी मर्यादा करके 'इतने काल तक मैं स्थूल हिंसा,
१. अयोग्यानि वानिष्ट-मु०।
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