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विजयोदया टीका
१६१ करोति । वाक्कायाभ्यां वा स्वयं करणं त्यजति कायेनैकेन वा । तथा चोक्तम्— 'एकविधं तिविषेण वापि विरमेज्ज' इति । एवमेते व्रतविकल्पाः भविष्यत्कालविषयतयानुयुज्यमानाः प्रत्याख्यानविकल्पाः भवन्तीत्यत्रोपन्यासः कृतः ।
कायोत्सर्गी निरूप्यते - कायः शरीरं तस्य उत्सर्गस्त्यागः कायोत्सर्गः । उपलब्ध्यधिष्ठानेन्द्रियावयवक: कर्मनिवर्तितः पुद्गलप्रचयविशेष औदारिकाख्य इंह कायशब्देन गृहीतः इतरत्र उत्सर्गस्यासंभवात् वक्ष्यमाणस्य । ननु च आयुषो निरवशेपगलने आत्मा शरीरमुत्सृजति नान्यदा तत्किमुच्यते कायोत्सर्ग इति ।
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आत्मशरीरयोरन्योऽन्यस्य प्रदेशानुप्रवेशिनोरायुर्वशात् अनपायित्वेऽपि शरीरे अशुचित्वं सप्तधातुरूपतया अशुचितमं शुक्रशोणितवीतबीजत्वाच्च तथा ऽनित्यत्वं अपायित्वं, दुर्वहत्वं, असारत्वं, दुःखहेतुत्वं, शरीरगतम मताहेतुकमनंतसंसारपरिभ्रमणं इत्यादिकान्संप्रधार्य दोषान्नेदं मम नाहमस्येति संकल्पवतस्तदादराभावात्कायस्य त्यागो घटत एव । यथा प्राणेभ्योऽपि प्रियतमा कृतापराधावस्थिता ह्येकस्मिन्मंदिरे त्यक्ते - त्युच्यते तस्यामनुरागाभावान्ममेदं भावव्यावृत्तिमपेक्ष्य एवमिहापि । किंच कायापायसन्निपातेऽपि अपायनिराकरणाभिलाषस्याभावात् । यो यदपायनिराकरणानुत्सकस्तेन तत्परित्यक्तं यथा वसनादिकं परिहृतं । शरीरापायनिराकरणानुत्सुकश्च यतिस्तस्माद्युज्यते कायस्य त्यागः ।
करता है । अथवा स्वयं करनेको वचन और कायसे त्यागता है या एक कायसे त्यागता है । कहा है - 'एक कृतको तीन प्रकारसे त्यागता है । इन व्रतके भेदोंको भविष्य कालके साथ जोड़ने पर कि मैं भविष्य में ऐसा नहीं करूँगा, ये प्रत्याख्यानके भेद होते हैं । .
अब कायोत्सर्गको कहते हैं - काय अर्थात् शरीरके, उत्सर्ग अर्थात् त्यागको कायोत्सर्ग कहते हैं। पदार्थो को जाननेका आधार इन्द्रियाँ जिसकी अवयव है, और कर्मके द्वारा जिसकी रचना हुई तथा जो पुद्गलोंका एक समूह विशेष है उस औदारिक नामक शरीरको यहाँ काय शब्दसे ग्रहण किया है क्योंकि आगे कहे जानेवाला उत्सर्गं अन्य शरीरोंमें सम्भव नहीं है ।
शंका - आयुकर्म जब पूर्णरूपसे समाप्त हो जाता है तब आत्मा शरीरको छोड़ता है अन्य कालमें नहीं छोड़ता । तब कैसे आप कायोत्सर्गकी बात करते हैं ?
समाधान - आत्मा और शरीरके प्रदेश परस्पर में मिलनेसे आयुकर्मके कारण यद्यपि शरीर ठहरा रहता है तथापि शरीर सात धातु रूप होनेसे अपवित्र है, रज और वीर्यंसें उत्पन्न होनेसे विशेष अपवित्र है । तथा अनित्य है, नष्ट होनेवाला है, दुःखसे धारण करने योग्य है, असार है. दुःखका कारण है, इस शरीर से ममत्व करनेसे अनन्त संसार में भ्रमण करना होता है, इत्यादि दोषोंको
कर 'न यह मेरा है, न मैं इसका हूँ' ऐसा संकल्प करनेवालेके शरीरमें आदरका अभाव होनेसे कायका त्याग घटित होता ही है । जैसे प्राणोंसे भी प्यारी पत्नी अपराध करनेपर उसमें अनुराग न रहने से 'यह मेरी है' इस प्रकारका भाव न होनेसे एक ही घर में रहते हुए भी 'त्यागी हुई' कही जाती है, उसी प्रकार यहाँ भी जानना । दूसरे, शरीरके विनाशके कारण उपस्थित होनेपर भी कायोत्सर्ग करनेवालेके विनाशके कारणको दूर करनेकी इच्छा नहीं होती। जो जिसके विनाशके कारणों को दूर करनेमें उत्सुक नहीं है उसने उसे त्याग दिया है, जैसे त्यागा हुआ वस्त्रादि। और यति शरीरके विनाशके कारणको दूर करनेमें उत्सुक नहीं होता । अतः उसके
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