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विजयोदया टोका
१७३ नूनमभिमानत्यागो गुणो अन्यथा किमित्ययं विनयं करोतीति । गुरवो हि बहुमान्याः कृता भवन्ति विनयेनेत्याह-'गुरुजणे य बहुमाणों' इति ।
तित्थयराणं आणा संपादिदा होदित्ति' शेषः । विनयमुपदिशतां तीर्थकृतां आज्ञा संपादिता भवति, अनुष्ठितेन विनयेन । 'गुणानुमोदोय' गुणिषु विनयं प्रवर्तयता तदीयगुणानुमननं कृतं भवति इति । केचिद् गुणेषु श्रद्धानादिषु हर्षः कृतो भवतीत्येवं वदन्ति । एते विनयगुणाः । गुणशब्द उपकारवचनोऽत्र विनयजन्यत्वाद्विनयस्य गुणा इत्युच्यन्ते ॥१३३।।
विनयव्याख्यानानन्तरं समाधिनिरूपणार्थ उत्तरप्रबंधः ! योग्यस्य, गृहीतलिङ्गस्य, ज्ञानभावनोद्यतस्य, ज्ञाननिरूपते विनये वर्तमानस्य, रत्नत्रये मानसः सम्यगाराधनं न्याय्यमित्यधिकारसंबन्धोऽनुगंतव्यः । चेतः समाहितं कीदृक् तस्य वा समाहितस्य किं फलमिति चोद्यद्वयप्रतिविधानार्था' गाथा ।
चित्तं समाहिदं जस्स होज्ज वज्जिदविसोत्तियं वसियं ।
सो वहदि णिरदिचारं सामण्णधुरं अपरिसंतो ॥१३४॥ 'चित्तं समाहिदं जस्स' जस्स चित्तं वज्जिदविसोत्तिगं वसियं समाहिद इति पदघटना । यस्य चेतः परित्यक्ताशुभपरिणतिप्रसरं वशवति च यत्र नियुङ्क्ते तत्रैव तिष्ठति, तच्चित्तं समाहितमिति ग्राह्यम् । अत्रैवं
___ समाधान-यहाँ परके मानभंगको कहा है। एक की विनय देखकर दूसरा भी अपना मान छोड़ देता है, क्योंकि लोग प्रायः गतानुगतिक होते हैं। दूसरोंको जैसा करता देखते हैं स्वयं भी वैसा करते हैं। वे सोचते हैं-निश्चय ही अभिमानका त्याग गुण है, अन्यथा यह विनय क्यों. करता । विनयसे गुरुवोंका बहुत मान होता है क्योंकि विनयी शिष्य अपने गुरुजनोंका बहुत सम्मान करता है।
तथा तीर्थङ्करोंकी आज्ञाका पालन होता है। अर्थात् विनयका उपदेश देने वाले तीर्थंकरों की आज्ञाका पालन विनय करने से होता है। तथा गुणीजनों की विनय करनेसे उनके गुणोंकी अनुमोदना होती है। कोई कहते हैं कि श्रद्धानादि गुणोंमें हर्ष प्रकट होता है । ये विनयके गुण हैं। यहाँ गुणशब्द उपकारवाची है । विनयसे पैदा होनेके कारण इन्हें विनयके गुण कहते हैं ।।१३३॥ - विनयका कथन करनेके पश्चात् समाधिका कथन करते हैं। जो योग्य हो, जिसने साधु लिंग स्वीकार किया हो, ज्ञान भावनामें तत्पर हो, शास्त्र निरूपित विनयका पालन करता हो और जिसका मन रत्नत्रय में हो, उसको सम्यक् आराधना करना योग्य है, इस प्रकार अधिकार का सम्बन्ध लगाना चाहिये । अब समाहित चित्त कैसा होता है और उसका क्या फल है ? इन दो प्रश्नों का उत्तर गाथा द्वारा देते हैं
गा०—जिसका चित्त अशुभ परिणामोंके प्रवाहसे रहित और वशवर्ती होता है वह चित्त समाहित होता है । वह समाहित चित्त विना थके णिरतिचार चारित्रके भारको धारण करता है ॥१३४॥
टी०—जिसका चित्त अशुभ परिणामोंके प्रवाहको छोड़ देता है और जहाँ उसे लगाया जाय वहीं ठहरा रहता है वह चित्त समाहित जानना । यहाँ यह विचार करते हैं कि यह चित्त
१ प्रतिविबोधना आ० मु० । २. अन्यैरेवं आ० मु० ।
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