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विजयोदया टीका
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परिणामेभ्यो निर्गतो 'णिप्पणयपेमराग' इत्युच्यते । 'उवेज्ज' प्रतिपद्यत । 'समभावं' समचित्ततां । द्रव्ये पर्याय वा रागकोपावन्तरेण तत्तस्वरूपग्रहणमात्रप्रवृत्तिनिता समचित्तता ॥ उवधी गदा ॥१७२।
परिग्रहपरित्यागादनन्तरोऽधिकारः श्रितिनमि, एतद्वयाख्यातुकामः श्रितिशब्दस्यार्थद्वयं व्याचष्टे भावश्रितिव्यथितिरिति, अप्रकृतं श्रितिशब्दार्थ निराकर्तुमिष्टं दर्शयितुम्
जा उवरि उवरि गुणपडिवत्ती सा भावदो सिदी होदि ।
दव्वसिदी हिस्सेणी सोवाणं आरुहंतस्स ।।१७३।। 'जा' या । 'उवरि उवरि' उपर्युपरि। 'गुणपडिवत्ती' गुणप्रतिपत्तिः । ज्ञानश्रद्धानसमानभावानां गुणानां प्रवृत्तानां उपर्युपरि गुणनात्तथाभूतानामेव प्रतिपत्तिर्या सा। 'भावदो' भावेन । 'सिदी होदि' श्रितिभवति । भावश्रितिः सैवेति यावत् । अथ का द्रव्यथितिः ? अस्योत्तरमाह-'दग्वसिदी' श्रीयते इति श्रितिः द्रव्यं च तत् श्रितिश्च सा द्रव्यश्रितिः । यदाश्रीयते द्रव्यं निश्रेयणीसोपानादिकं तदपि श्रितिशब्देनोच्यते । 'आरुहंतस्स' आरोहतः ॥१७३॥ अनयोः का' परिगृहीतेत्यत्राह
सल्लेहणं करेंतो सव्वं सुहसीलयं पयहिदूण । भावसिदिमारुहिता विहरेज्ज सरीरणिव्वण्णो ॥१७४।।
स्पर्श पर्यायोंमें प्रणय अर्थात् स्नेह, प्रेम और राग अर्थात्. आसक्ति रूप परिणामोंसे रहित है वह सर्वत्र समभाव अर्थात् समचित्तताको प्राप्त होता है। द्रव्य अथवा पर्यायमें राग द्वेष के विना उनके स्वरूपको ग्रहण मात्र करनेकी प्रवृत्तिको अर्थात् ज्ञानताको समचित्तता कहते हैं ॥१७२।। ___ उपधि त्याग समाप्त हुआ।
परिग्रह त्यागके अनन्तर श्रिति नामक अधिकार है। उसका व्याख्यान करनेके इच्छक ग्रन्थकार श्रिति शब्दके दो अर्थ कहते हैं भाव श्रिति और द्रव्य श्रिति । श्रिति शब्दके अप्रकृत अर्थका निराकरण और इष्ट अर्थ का कथन करते हैं
गा०-जो ऊपर-ऊपर गुणोंकी प्रतिपत्ति है वह भावसे श्रिति है। ऊपर चढ़ने वाले के नसैनी सीढ़ी आदि द्रव्य श्रिति है ।।१७३।।
टो०-ज्ञान श्रद्धान समभाव आदि गणोंका ऊपर-ऊपर उन्नत होना गुण प्रतिपत्ति है और वह भाव श्रिति है। भाव अर्थात् परिणामसे श्रिति भाव श्रिति अर्थात् परिणाम सेवा है । 'श्रीयते' जिसका आश्रय लिया जाये वह श्रिति है। द्रव्यरूप श्रिति द्रव्य श्रिति है। ऊपर चढ़ने वाला नसैनी सीढी आदि जिस द्रव्यका आश्रय लेता है उसको भी श्रिति शब्दसे कहते हैं ॥१७३।।
यहाँ इन दोनोंमेंसे किसका ग्रहण किया है, यह कहते है
गा०–सल्लेखना करता हुआ शरीरसे विरक्त साधु सब सुखशीलताको मन वचन कायसे त्यागकर भावश्रिति पर आरोहण करके विहार करे ॥१७४॥..
१. का या ग-आ० मु० ।
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