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विजयोदया टीका
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केवलिष्वादरवानिव यो वर्तते । तदर्चनायां मनसा तु न रोचते स केवलिनां मायावान् । धर्मश्चारित्रं तत्र मायया प्रवृत्तः । आचार्याणां साधूनां च वञ्चकः । खिभिसभावणं किल्विषभावनां । 'कुणई' करोति ।।१८३॥ अभियोग्यभावनां निरूपयत्युत्तरगाथा
' मंताभिओगकोदुगभूदीयम्मं पउंजदे जो हु ।
इड्ढिरससादहेदु अभिओगं-भावणं कुणइ ॥१८४।। 'मंताभिओगकोदुगभूईकम्म' मन्त्राभियोगक्रियां, कुतूहलोपदर्शनक्रियां, बालादीनां रक्षार्थ भूति कर्म च । 'पयुंजदे' करोति यः । 'अभियोगं भावणं कुणइ' अभियोग्यां भावनां करोति । कि? सर्व एव म योगादी प्रवृत्तो नेत्याह । 'इड्ढिरससादहेदु मंताभियोगकोदुगभूईकम्मं जो पउंजदे सो अभियोगभावणं कुणइ' । द्रव्यलाभस्य, मृष्टाशनस्य, सुखस्य वा हेतुं मन्त्राद्यभियोगकर्म प्रयुक्ते यः स एव अभियोग्यभावनां करोति' नेतरः । स्वस्य परस्य वा आयुरादिपरिज्ञानार्थ कौतुकं उपदर्शयन, वैयांवृत्यं प्रर्वतयामीति वा । उद्यतः, ज्ञानदर्शन चारित्रपरिणामादरवर्तनान्न दुष्यतीति भावः ॥१८४॥ चतुर्थी भावनां वदन्ति
अणुबद्धरोसविग्गहसंसत्ततवो णिमित्तपडिसेवी । णिक्किवणिराणतावी आसुरिअं भावणं कुणदि ॥१८५।।
उनकी पूजा मनमें नहीं रुचतो । वह केवलियोंके सम्बन्धमें मायावी है। धर्म अर्थात् चारित्रके विषयमें जो मायाचार करता है वह धर्मका मायावी है। तथा जो आचार्यों और साधुओंको ठगता हे वह किल्विष भावनाको करता है ॥१८३।।
आगेकी गाथासे अभियोग्य भावनाको कहते हैं
गा०-जो द्रव्यलाभ, मिष्टरस और सुखके लिए मंत्राभियोग-भूत आदि बुलाना, कौतुकअकालमें वर्षा आदि दिखलाना और वच्चोंकी रक्षाके लिये भभूत देना आदि करता है वह अभियोग्य भावना करता है ॥१८४।।
टी०-द्रव्यलाभ, मीठा भोजन और सुखके लिये जो मन्त्राभियोग क्रिया, कुतूहल दिखानेकी क्रिया और बालक आदिकी रक्षाके लिये भूतिकर्म करता है वह अभियोग्य भावनाको करता है। जो द्रव्यलाभ आदिके लोभसे मंत्रादि करता है वही अभियोग्य भावना करता है, सब नहीं ! जो अपनी या दूसरोंकी आयु आदि जाननेके लिये मंत्र प्रयोग करता है, धर्मकी प्रभावनाके लिये कौतुक दिखलाता है या वैयावृत्य करनेकी भावनामें तत्पर रहता है वह ज्ञान दर्शन और चारित्र परिणामोंमें आदर भाव रखनेसे दोषका भागी नहीं है, यह भाव है ॥१८४।।
चौथी आसुरी भावनाको कहते हैं
गा०-अनुबद्ध क्रोध और कलहसे जिसका तप संयुक्त है, ज्योतिष आदिसे आजीविका करता है, निर्दय है, दूसरेको कष्ट देकर भी पश्चात्ताप नहीं करता वह आसुरी भावनाको करता है ॥१८५॥
१. ति तेन यः स्वस्य-आ० मु० ।
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