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भगवती आराधना
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जनिताः प्रीतिविशेषाः सुखशब्दवाच्यास्ते तृष्णामेवातिशयवतीं आनयंति चेतोव्याकुलकारिणीं न चेतः स्वास्थ्यं संपादयितुमीशा इति । न तु उपयोग्याः कामभोगाः, रत्नत्रयसंपत्तिरेव जनस्योपयोगिनी, न तथा भोगसंपदा - स्माकं किञ्चिदस्ति कृत्यं । मदीयपरिणामावलंबिनौ हि बन्धमोक्षौ मम । ततः किं तेन गणेन । शरीरमप्यकिञ्चित्करं । न चेत्कर्माणि किञ्चित्कुर्युः । बाह्यं जीवाजीवात्मकं द्रव्यं रागकोपनिमित्तं इदमुपकारकमनुपकारकमिति वा संकल्प्यमानं नान्यथा । ततः संकल्पमीदृग्भूतं विहाय शुद्धात्मस्वरूपज्ञानपरिणामप्रबन्धः असहायात्मस्वरूपविषय इति एकत्वभावनोच्यते । सत्यामस्यां न क्वचित्सङ्गः' ततः 'वेरग्गग्रदो' वैराग्यमुपगतः । 'फाइ' स्पृशति । 'अणुत्तरं धम्मं' अतिशयितं चारित्रं । एतेन संसारवीजस्य सङ्गस्य निवृत्तिरशेषकर्मापायतोश्चारित्रस्य च लाभो गुण एकत्वभावनाजन्यः इत्याख्यातं भवति । एकत्वभावना मोहमज्ञानरूपं अप्यपनयति यथा जिनकल्पिको निरस्तमोहः संवृत्तः ॥ २०२॥
भयणीए विधम्मिज्जंतीए एयत्तभावणाए जहा ।
जिणकप्पिदो ण मूढो खवओ वि ण मुज्झइ तधेव ॥ २०३ ॥
यथा जिनकल्पिको जिनकल्पकं प्रपन्नो नागदत्तो नाम मुनिर्भगिन्यामयोग्यं कारयन्त्यामपि एकत्वभावनया | ,ण मूढो' मोहं न गतः । तथैव क्षपकोऽपि न मुह्यतीति गाथार्थः । एकत्वभावना ॥२०३॥
पञ्चमी धृतिबलभावना दुःखोपनिपात अकातरता धृतिः सैव बलं धृतिबलं तस्य भावनाभ्यासः असकृदकातरतया वृत्तिः । तया धृतिबलभावनया दुःखदपरीषहचम्वा युध्यतीति निगदति-
करता । बाह्य पदार्थोंके सम्बन्धसे उत्पन्न हुए प्रीति विशेषको सुख शब्दसे कहते हैं । वे चित्तको व्याकुल करने वाली अति तृष्णाको ही पैदा करते हैं । वे चित्तको स्वस्थ करनेमें समर्थ नहीं हैं । कामभोग भोगने योग्य नहीं हैं । रत्नत्रयरूप संपत्ति ही मनुष्यके लिए उपयोगी है । उस भोगसम्पदासे हमें कुछ नहीं करना है । मेरे परिणामों पर अवलम्बित बन्ध और मोक्ष ही मेरे हैं । अतः गणसे मुझे क्या ? शरीर भी अकिञ्चित्कर है । यदि ऐसा न होता तो कर्म क्या करते । बाह्य जीव अजीव आदि द्रव्योंमें यह उपकारक है और यह उपकारक नहीं है ऐसा संकल्प करनेसें ही रागद्वेष होते हैं, और संकल्प न करनेसे नहीं होते । इसलिए इस प्रकारका संकल्प त्यागकर शुद्ध आत्म स्वरूपके ज्ञानरूप परिणामोंका प्रबन्ध और परकी सहायता से रहित आत्म स्वरूपका चिन्तन एकत्व भावना कहाता है । उसके होने पर किसी भी पदार्थ में ममत्व नहीं होता । अतः वैराग्य धारण करके उत्कृष्ट चारित्रको अपनाता है । इससे यह कहा है कि संसारका बीज जो ममत्वभाव हैं उससे निवृत्ति और समस्त कर्मोंके विनाशका कारण जो चारित्र है उसकी प्राप्ति एकत्व भावनासे होने वाले गुण हैं । एकत्व भावना अज्ञानरूप मोहको भी दूर करती है । जैसे जिनकल्पी मोहको दूर करते हैं ||२०२||
गा० - जैसें अयोग्य आचरण करनेवाली अपनी बहनमें जिनकल्पको धारण करनेवाला नागदत्त नामक मुनि एकत्व भावनासे मोहको प्राप्त नहीं हुआ । वैसे ही क्षपक भी मोहको प्राप्त नहीं होता || २०३ ||
एकत्व भावना समाप्त हुई । पाँचवी धृतिबल भावना है । उसका अर्थ है दुःख आनेपर कार नहीं होना । धृति अर्थात् धैर्य ही हुआ बल । उसकी भावना अर्थात् अभ्यास, निरन्तर कात
१. संगं करोति वे-आ० मु० ।
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