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विजयोदया टीका
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पुरादभ्रविभ्रमविलोकनोद्भूताभिलाषदहनजनितसन्तापेन षण्मासावस्थितेरायुषः परिज्ञानेन च महदुदपादि दुःखं । एवं नरकभवेपि । इत्थमनन्तकालमनुभतदुःखस्य मम को विषादो, दुःखोपनिपाते। न च विपण्णं त्यजन्ति दुःखानि, स्वकारणायत्तसन्निधानानि तानीति सत्वभावना। यद्यशुभशरीरदर्शनाद् भीतिः सापि नो युक्ता । तानि शरीराणि असकृन्मया गृहीतानि दृष्टानि च। का तत्र परिचितेभ्यो भीतिरिति चित्तस्थिरीक्रिया सत्वभावना ॥२०॥
एयत्तभावणाए ण कामभोगे गणे सरीरे वा ।
सज्जइ वेरग्गमणो फासेदि अणुत्तरं धम्मं ॥२०२॥ एकत्वभावना नाम जन्मजरामरणावृत्तिजनितदुःखानुभवने न दुःखं मदीयं संविभजति कश्चित् । दुःखसंविभजनगुणन स्वजन इत्यनुरागः तदकरणेन च परजन इति च द्वेषो युज्यते । न चेदस्ति सुखं मय्याधातुमक्षमः इति न तत्सूखेनापि स्वजनपरजनविवेकः। तस्मादेक एवाहं न मे कश्चित् । नाप्यहं कस्यचिदिति चिन्ता कार्या। तस्या गणमाचष्टे 'एयत्तभावणाए' एकत्वभावनया हेतभतया । 'न सज्ज दि' नासक्ति करोति । क्व ? कामभोगे, गणे शिष्यादिवर्गे, शरीरे वा सुखे वा। कामं स्वेच्छया भुज्यन्ते इति कामभोगाः । सुखसाधनतया संकल्पितभक्तपानादयो वामलोचनादिवर्गश्च तत्र न संगं करोति । बाह्यद्रव्यसंसर्ग
प्रकार देवोंके प्रधानोंके अति कठोर वचन रूपी कीलोंसे कानोंके छेदनेसे, इन्द्रके अन्तपुरकी देवांगनाओंके प्रचुर विलासको देखकर उत्पन्न हुई ऐसी सुन्दर देवांगनाओंकी अभिलाषारूपी आगसे उत्पन्न हुए संतापसे, और आयुके छह मासके शेष रहनेके परिज्ञानसे महान दुःख होता है। इसी प्रकार नरक पर्यायमें भी जानना । इस प्रकार मैंने अनन्तकाल दुःखका अनुभव किया है। तब दुःख आने पर विषाद क्यों ? विषाद करनेसे दुःख छोड़ता नहीं है । दुःख तो अपने कारणोंके होनेसे होता है । यह सत्त्वभावना है। यदि अशुभ शरीरके देखनेसे भय होता है तो वह भी ठीक नहीं है । ऐसे शरीर मैंने बहुत बार धारण किये हैं और देखे हैं। परिचितोंसे भय कैसा ? इस प्रकार चित्तको स्थिर करना सत्त्वभावना है ।।२०१।।
गा०-एकत्व भावनासे कामभोगमें, संघमें अथवा शरीरमें आसक्ति नहीं करता । वैराग्यमें मन रमाये हुए सर्वोत्कृष्ट चारित्रको अपनाता है ।।२०२।।
टो०-एकत्व भावनाका स्वरूप इस प्रकार है-जन्म, जरा, और मरणके वार-बार होनेसे उत्पन्न हुए दुःखको भोगने में कोई मेरे दुःखमें भाग नहीं लेता। अतः दुःखमें भाग लेनेसे यह स्वजन है इसलिए उसमें अनुराग और जो दुःखमें भाग नहीं लेता वह परजन है इसलिए उससे द्वष करना उचित नहीं है । यदि कोई दुःखमें भाग नहीं लेता तो मुझमें सुख हो पैदा करदे सो भी बात नहीं है। अतः जो मुझमें सुख पैदा करे वह स्वजन है और जो सुख पैदा नहीं करता वह परजन है ऐसा भेद सुखको लेकर भी नहीं होता। अतः मैं अकेला ही हूँ। कोई मेरा नहीं है। और न मैं ही किसीका हूँ ऐसा विचार करना चाहिए । उसका लाभ कहते हैं कि एकत्व भावनासे काम भोगमें, शिष्यादिके समूहरूप गणमें, शरीर अथवा सुखमें आसक्ति नहीं होती।
'काम' अर्थात् अपनी इच्छासे जो भोगे जाते हैं वे कामभोग हैं। सुखका साधन होनेसे मनमें संकल्पित खान-पान आदि और स्त्री आदि वर्ग कामभोग हैं। उसमें वह आसक्ति नहीं
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