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भगवती आराधना अरसं च अण्णवेलाकदं च सुद्धोदणं च लुक्खं च ।
आयंबिलमायामोदणं च विगडोदणं चेव ।।२१८।। 'अरसं' च स्वादरहितं । 'अण्णवेलाकदं च' वेलान्तरकृतं च शीतलमिति याबत । 'सुद्धोदणं च' शुद्धौदनं च केनचिदप्यमिश्रं । 'लुक्ख च' रूक्षं च स्निग्धताप्रतिपक्षमतेन स्पर्शेन विशिष्टमिति यावत् । 'आयंबिलं' असंस्कृतसौवीरमिश्रं । 'आयामोदणं' अप्रचरजलं सिक्थाढ्यमिति केचिद्वदन्ति । अव श्रावणसहितमित्यन्ये । 'विगडोदणं' अतीव पक्वं । उष्णोदकसम्मिश्रं इत्यपरे ॥२१८।।
इच्चेवमादि विविहो णायव्वो हवदि रसपरिच्चाओ।
एस तवो भजिदल्वो विसेसदो सल्लिहंतेण ॥२१९।। 'इच्चवमादिविविहो' एषमादिविविधो नानाप्रकारो। 'णादव्वो हवइ रसपरिच्चाओ' ज्ञातव्यः सर्वेषां रसपरित्यागः । 'एस तवो भजिदब्बो' एतद्रसपरित्यागाख्यं तपः । 'भजिद-वो' सेव्यं । विसेसदो' विशेषेण । 'सल्लिहंतेण' कायसल्लेखनां कुर्वता । 'चाओ रसाणं' ।।२१९।। वृत्तिपरिसंख्याननिरूपणाय गाथाचतुष्टयमुत्तरम्
गत्तापच्चागदं उज्जुवीहि गोमुत्तियं च पेलवियं । सम्बकावटॅपि पदंगवीधी य गोयरिया ।।२२०।।
गा०-स्वाद रहित अन्य समयमें बनाया गया अर्थात् ठण्डा भोजन, और शुद्ध भात जिसमें कोई अन्य शाक वगैरह न मिला हो, और रूखा भोजन जिसमें घी आदि न हो, आचाम्ल अर्थात् कांजी मिश्रित भात, थोड़ा जल और बहुत चावल वाला भात, और बहुत अधिकपका भात ॥२१८॥
टी०-आयामोदण' का अर्थ कोई तो थोड़ा जल और चावल बहुत ऐसा भात करते है । अन्य कुछ अवश्रावण सहित (?) कहते है । विगडोदणका अर्थ दूसरे व्याख्याकार गर्मजलसे मिश्रित भात करते है ॥२१८॥
गा०--इत्यादि अनेक प्रकारका रस परित्याग सबको जानने योग्य है। शरीर सल्लेखना करने वालेको यह रस परित्याग नामक तप विशेष रूपसे सेवन करना चाहिये ॥२१९:।
रस परित्याग तपका वर्णन समाप्त हुआ। आगे चार गाथाओंसे वृत्तिपरि संख्यान तपका कथन करते हैं . ____टी०-'गत्तापच्चागदं'—जिस मार्गसे पहले गया उसीसे लौटते हुए यदि भिक्षा मिलेगी तो ग्रहण करूँगा अन्यथा नहीं ग्रहण करूंगा। 'उज्जुवीहिं'-सीधे मार्गसे जानेपर मिली तो ग्रहण करूंगा अन्यथा नहीं ग्रहण करूंगा। गोमूत्तियं' बैलके मूतते हुए जानेसे जैसा आकार बनता है मोड़ेदार, वैसे जाते हुए यदि भिक्षा मिलेगी तो ग्रहण करूंगा अन्यथा नहीं ग्रहण करूंगा। 'पेल्लवियं'-वस्त्र सूवर्ण आदि रखनेके लिए बांस के पत्ते आदिसे जो सन्दूक बनता है, जिसपर ढकना भी हो, उसके समान चौकोर भ्रमण करते हुए भिक्षा मिली तो ग्रहण करूंगा अन्यथा नहीं।
'संबूकावट्ट'-शंखके आवतॊके समान गाँवके अन्दर आवर्ताकार भ्रमण करके बाहरकी १. अवसावण आ. मू. । २. अतीवतीव्रपक्वं आ. मु.। ३. कायव्वो अ० आ० ।
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