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विजयोदया टीक
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'गतापच्चगदं' । यया वीथ्या गतः पूर्वं तयैव प्रत्यागमनं कुर्वन्यदि भिक्षां लभते गृह्णाति नान्यथा । 'उज्जुवीहि' ऋया वीथ्या गतो यदि लभते गृह्णाति नेतरथा । गोमूत्रिकाकारं भ्रमणं वा संपादयन् । 'पेल्लविगं' वंशदलादिभिनिष्पादितं वस्त्रसुवर्णादिनिक्षेपणार्थं पिधानसहितं यत्तद्वच्चतुरस्राकारं भ्रमणं । 'संबूकावट्ट पि य' शंबूकावर्त इव । 'पदंगवीथी य' पतंगमाला पतंगवीथीत्युच्यते । सा यथा भ्रमति तथा भ्रमणं । 'गोयरिया' गोचर्यां भिक्षायां भ्रमणं । एवंभूतेन भ्रमणेन लब्धां भिक्षां गृह्णामि नान्यथेति कृतसंकल्प 'ता वृत्तिपरिसंख्यानं ॥ २२०॥
पाडयणियंसणभिक्खा परिमाणं दत्तिघासपरिमाणं ।
पिंडेसणा य पाणेसणा य जागूय पुग्गलया ।। २२१ ।।
'पाडयणियंसणभिक्खापरिमाणं' इमं एव पाटकं प्रविश्य लब्धां भिक्षां गृह्णामि नान्यं । एकमेव पाटकं पाटकद्वयमेवेति । अस्य गृहस्य परिकरतया अवस्थितां भूमिं प्रविशामि न गृहमित्थमभिग्रहः णियंसणमित्युच्यते इति केचिद्वदन्ति । अपरे पाटस्य भूमिमेव प्रविशामि न पाटगृहाणि इति संकल्पः पाडगणिगंसणमित्युच्यते इति कथयन्ति । भिक्षापरिमाणं एकां भिक्षां द्वे एव वा गृह्णामि नाधिकामिति । 'दत्तिभासपरिमाणं' एकेनैव दीयमानं द्वाभ्यामेवेति दानक्रियापरिमाणं । आनीतायामपि भिक्षायां इयत एवं ग्रासान्गृह्णामि इति वा परिमाणं । 'पिडेसणा' पिण्डभूतमेवासनं गृह्णामि । 'पाणेसणाओ' द्रवबहुलतया यत्पीयते अशनं । 'जागूय' यवागूः । 'पोग्गलिया वा' धान्यान्येव निष्पावचणकमसूरकादीनि भक्षयामि इति ॥ २२१ ॥
संसि फलिह परिखा पुप्फोवहिद व सुद्धगोवहिदं । लेवड मलेवर्ड पाणायं च णिस्सित्थगं ससित्थं ||२२२||
और भ्रमण करते हुए भिक्षा मिली तो ग्रहण करूँगा अन्यथा नहीं ।
'पदंगवीधी' – पक्षियों की पंक्ति जैसे भ्रमण करती है उस तरह भ्रमण करते हुए यदि भिक्षा मिली तो मैं ग्रहण करूँगा । गोयरिया' – गोचरी भिक्षाके अनुसार भ्रमण करते हुए भिक्षा मिलेगी तो ग्रहण करूंगा । इस प्रकारके संकल्प करनेको वृत्ति परिसंख्यान कहते हैं २२०॥
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गा०-टी०–‘पाड्यनियंसण' - इसी ही फाटक में प्रवेश करके मिली हुई भिक्षाको ग्रहण करूँगा, अन्य फाटक में नहीं । एक ही फाटक में प्रवेश करूँगा या दो में ही प्रवेश करूँगा । 'अमुक घरसे लगी हुई भूमिमें प्रवेश करूँगा, घरमें नहीं जाऊँगा ? इस प्रकारकी प्रतिज्ञाको णियंसण कहते हैं । ऐसा कोई कहते हैं । दूसरोंका कहना है कि पाटकी भूमि में हो प्रवेश करूँगा, पाटके घरों में प्रवेश हींग इस प्रकारके संकल्पको 'पाटकाणियंसण' कहते हैं । 'भिक्षा परिमाण' - एक ही भिक्षा या दो ही भिक्षा ग्रहण करूँगा, अधिक नहीं । 'दत्तिघास परिमाण' - एक के ही द्वारा देने पर या दो के ही द्वारा देनेपर भिक्षा ग्रहण करूंगा । अथवा दाताके द्वारा लाई गई भिक्षा में से भी इतने ही ग्रास ग्रहण करूंगा ऐसा परिमाण करना । पिंडेसणा' - पिण्ड रूप भोजन ही ग्रहण करूंगा । 'पाणेसणा' - जो बहुत द्रव होनेसे पीने योग्य होगा वही ग्रहण करूंगा । 'जागूय' यवागू ही ग्रहण करूंगा । 'पुग्गलया'– चना मसूर आदि धान्य ही ग्रहण करूँगा || २२१॥
१. ल्पना वृ-आ० मु० । २. मित्यवग्रहः ।
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