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विजयोदया टोका
सादितप्रलयानि च कर्माणि विचित्रं यातयन्त्यात्मानं । ततो भीतिरेवानेकानर्थमूलमिति निश्चित्य सा प्रागेव निरसनीया। तथाहि-||१९९॥
खणणुत्तावणवालणवीयणविच्छेयणावरोहत्तं । चिंतिय दुह अदीहं मुज्झदि णो सत्तभाविदो दुक्खे ॥२००।। बालमरणाणि साहू सुचिंतिदूणप्पणो अणंताणि ।
मरणे समुट्ठिए विहि मुज्झइ णो सत्तभावणाणिरदो ॥२०१।। पृथिवीकायिकाः सन् खननदहनविलेखनकुट्टनभञ्जनलोठनपेषणचूर्णनादिभिर्बाधां परिप्राप्तोऽस्मि । अपश्च शरीरत्वेनोपादाय धर्मरश्मिकरनिकरापातेन, दहनज्वालाकलापकवलिततनुतया पर्वतदरीसमुन्नतदेशेभ्योऽतिवेगेन शिलाघनवसुन्धरासु पतनेन, आम्ललवणक्षारादिरससमवेतद्रव्यसन्मिश्रणेन, धगधगायमानेऽग्नौ प्रक्षेपणेन, तरुतटशिलापातेन पादकरतलाभिघातेन, तरणोधतानां विशालघनोरःस्थलावपीडनेन, अवलोकमानमहानागतरणमज्जनहस्तक्षोभणादिना व महती वेदनां अधिगतोऽस्मि ।
तथा समीरणं तनुतया परिगृह्य द्रुमगुल्मशिलोच्चयादीनां प्राणभृतां नितान्तकठिनकायानां चाभिघातेन समीरणान्तरावमनेन, ज्वलनस्पर्शनेन च दुःखासिकामनुभूतोऽस्मि ।
तथा परिगृहीताग्निशरीरो विध्यापनेन पांसुभस्मसिकतादिप्रक्षेपणेन, मुशलमात्रजलधारापातेन, दण्डकाष्ठादिभिस्ताडनेन, लोष्ठपाषाणादिभिश्चणनेन प्रभञ्जनभञ्जनेन विपदमाश्रितोऽस्मि ।
फलपलाशपल्लवकुसुमादिकायं स्वीकृत्य त्रोटनभक्षणमर्दनपेषणदहनादिभिस्तथा गुल्मलतापादपादिकं
गा०-खोदना, जलना, वहना छेदना, रोपनाको विचारकर सत्त्वभावनायुक्त मुनि दुःखमें अल्पकालीन दुःखसे मोहित नहीं होता अर्थात् नहीं डरता ॥२०॥
गा०-सत्त्वभावनामें लीन साधु अपने अनन्त बालमरणोंको सम्यकरूपसे विचारकर मरणके उपस्थित होनेपर भी मोहित नहीं होता ॥२०१।।
टी०-पृथ्वीकायमें जन्म लेकर मैंने खोदने, जलने, जोतने, कूटने, तोड़ने, लोटने, पीसने और चूर्णकी तरह पीसे जानेका कष्ट उठाया है। जलको शरीररूपसे ग्रहण करके मैंने सूर्यकी किरणोंके समहके गिरनेसे. आगकी ज्वालाके समहके द्वारा मेरे शरीरको निगल लेनेसे. पर्वतर्क गुफा जैसे ऊँचे स्थानोंसे शिला और कठोर पृथिवी पर अतिवेगसे गिरनेसे, खट्टे, नमकीन, खारे आदि रसोंसे युक्त द्रव्योंके मिलनेसे, धक्-धक् जलती हुई आग पर फेंकनेसे, वृक्ष, किनारे और शिलाओंके गिरनेसे, पैर और हथेलीके अभिघातसे, तैरनेमें उद्यत मनुष्योंके विशाल और दृढ़ छातीसे पीड़ित होनेसे, विशालकाय हाथियों के तैरने डूबने और सूंडके द्वारा क्षोभित होनेसे मैने बड़ी वेदना भोगी है। तथा वायुको शरीररूपसे ग्रहण करके वृक्ष, झाड़ी, पर्वत आदि प्राणियोंकी अत्यन्त कठोर कायाके अभिघातसे, दूसरी वायुके द्वारा दबाये जानेसे, और आगके स्पर्शनसे मैंने दुखोंका अनुभव किया है। तथा अग्निको शरीररूपसे ग्रहण करके बुझानेसे, धूल भस्म रेत आदि मेरे ऊपर फेंकनेसे, मसल जैसी जलधारा डालनेसे, दण्ड काष्ठ आदिसे पीटनेसे, लोष्ठ पत्थर आदि से चूर्णित करनेसे और वायुसे पीड़ित होनेसे मैं विपत्तियोंका स्थान बन चुका हूँ। फल, पलाश, पत्र, फूल आदिके शरीरको स्वीकार करके तोड़ना, खाना, मलना, पीसना और जलाने आदिसे
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