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विजयोदया टीका
२२५ कारणत्वाच्च । तस्य मार्गस्य दूषणं नाम ज्ञानादेव मोक्षः किं दर्शनचारित्राभ्यां ? चारित्रमेवोपायः कि ज्ञानेनेति कथयन्मार्गस्य दूषको भवति । अथवा मार्गप्रत्यायनपरं श्रुतं मार्गस्तस्य दूषको यो अपव्याख्यानकारी। 'मग्गविप्पडिवणी य' मार्गे रत्नत्रयात्मके विप्रतिपन्नः एष न मुक्तेर्मार्ग इति यस्तद्विरुद्धाचरणः । मोहेण य अज्ञानेन च संशयविपर्यासरूपेण । 'मुज्झन्तो' मुह्यन् । सम्मोहेसु तीवकामरागेषु कुत्सितेषु देवेषु उपपद्यते ॥१८६।। भावनानां फलं दर्शयति भयोपजननाय
एदाहिं भावणाहिं य विराधओ देवदुग्गदि लहइ ।
तत्तो चुदो समाणो भमिहिदि भवसागरमणंतं ।।१८७॥ ‘एदाहिं भावणाहिं य एताभिः भावनाभिः । 'देवदुग्गई लहदि' देवेषु दुष्टा या गतिस्तां गच्छति । 'विराधगो' रत्नत्रयाच्च्युतः । 'तत्तो चुदो समाणो' तस्या देवदुर्गतेश्च्युतः सन् । 'भमिहिदि' भ्रमिष्यति भवसागरमन्तातीतं ।।१८७।।
एदाओ पंच वि वज्जिय इणमो छट्ठीए विहरदे धीरो ।
पंचसमिदो तिगुत्तो णिस्संगो सव्वसंगेसु ।।१८८॥ 'एदाओ पंच वि वज्जिय' एताः पञ्च भावनाः परित्यज्य 'इणमो' अयं यतिः धीरः। 'छट्ठीए' षष्ठ्या भावनया । 'विहरदे' प्रवर्तते । पष्ठयां भावनायां प्रवर्तितु एवंभूतो योग्यः इत्याचष्टे-'पंचसमिदो' समितिपञ्चकवृत्तिः । 'तिगुत्तो' गुप्तित्रयालंकृतः । 'णिस्संगों' संगरहितः । 'सव्वसंगेसु' सर्वपरिग्रहेषु ॥१८८।। का सा षष्ठीभावना ? अत्राचष्टे
तवभावणा य सुदसत्तभावणेगत्तभावणा चेय । धिदिबलविभावणाविय असंकिलिट्ठावि पंचविहा ।।१८९।।
उस मार्गको दूषण लगाना । यथा-ज्ञानसे ही मोक्ष होता है, दर्शन और चारित्रसे क्या लाभ । अथवा चारित्र ही मोक्षका उपाय है, ज्ञानकी आवश्यकता नहीं है। ऐसा कहनेवाला मार्गका दूषक होता है। अथवा मार्गका ज्ञान करानेवाला श्रुतमार्ग है उसका जो दूषक है-मिथ्या व्याख्यान रता है। 'मग्गविप्पडिवणी'--रत्नत्रयात्मक मार्गमें विप्रतिपन्न है। यह मुक्तिका मार्ग नहीं है ऐसा मानकर उसके विरुद्ध आचरण करता है और मोह अर्थात् संशय विपर्ययरूप अज्ञानसे मोहित है। वह तीव्रकामी और रागी नीच देवों में उत्पन्न होता है ।।१८६।।
भय उत्पन्न करनेके लिये भावनाओंका फल बतलाते हैं
गा०-रत्नत्रयसे च्युत हुआ व्यक्ति इन भावनाओंसे देवोंमें जो दुष्टगति है उसे प्राप्त करता है । उस देवदुर्गतिसे च्युत होकर अन्तरहित संसार समुद्र में भ्रमण करता है ।।१८७।।
___ गा०-इन पाँचों ही भावनाओंको त्याग कर यह धीर यति छठी भावनामें प्रवृत्त होता है। जो पाँच समितियोंको पालता है, तीन गुप्तियोंसे सुशोभित है और सब परिग्रहोंमें आसक्ति रहित है । अर्थात् छठी भावनामें प्रवृत्त होनेके योग्य ऐसा यति ही होता है ॥१८८॥
छठी भावनाको कहते हैं२९
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