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भगवती आराधना ___'अणुबंघरोसविग्गहसंसत्ततवो णिमित्तपडिसेवी' रोषश्च विग्रहश्च रोषविग्रही अनुबन्धो रोषविग्रहो अनुबन्धरोषविग्रही अनुबन्धरोषविग्रहाम्यां संसक्तं. संबद्धं अनुबन्धरोषविग्रहसंसक्तं तपो यस्य स तथोक्तः । 'निमित्ताजीवी च' यः स आसुरोभावनां करोति इति केचित्कथयन्ति । अनुबद्धो भवान्तरानुयायी रोषो यस्य सोऽनुबद्धरोषः । विग्रहेण कलहेन संसक्तं तपो यस्य सः विग्रहसंसक्ततपःशब्देन भण्यते । अनुबद्धौ रोषविग्रहो अस्येत्यनुबद्धरोषविग्रहः । सम्यगतीव संसक्तं संबद्धं परिग्रहेण तपो यस्य स संसक्ततपोभिलापवाच्यः । णिक्किवणिराणुतावी, यः निर्दयः प्राणिषु, कृत्वापि परपीडां अनुतापरहितश्चासुरी भावनां करोति ॥१८५॥ संमोहभावना निरूप्यते
उम्मग्गदेसणो मग्गदूसणो मंग्गविप्पडिवणी य ।
मोहेण य मोहितो संमोहं भावणं कुणइ ॥१८६॥ उम्मग्गवेसणं मिथ्यादर्शनं, अविरति, वा य उपदिशति, आप्ताभासानागमस्तित्प्रणीतांश्च हितत्वेनाचष्टे । यो वा तत्त्वज्ञो हिसादिकं कुर्वन्नपि न पापेन लिप्यते । ज्ञानं हि सर्वं पापं दहति इति प्रतिपादयता हिंसादिभ्यो भयं निराकुर्वता हिंसादिषु जीवाः प्रवर्तिता भवन्ति । स एकः उन्मार्गस्योपदेष्टा । यज्ञे प्राणिवधो न पापाय शास्त्रचोदितत्वाद्दानादिवत् । किं च पशवो. हि यागार्थमेवादौ सृष्टा याजका यजमानाः पशवश्च मन्त्रमाहात्म्यात्स्वर्ग लभन्ते इति । अयमेकः उन्मार्गोपदेशः । 'मग्गदूसणों' संवरस्य निर्जरायाश्च निरवशेषकर्मापायस्य वा हेतुभूताः समीचीनज्ञानदर्शनचारित्रपरिणामा मार्ग इति उच्यते । अव्याबाधसुखस्य परंपरा
___टी.-अनुबद्ध रोष और विग्रहसे जिसका तप सम्बद्ध है और जो निमित्ताजीवि है वह आसुरी भावनाको करता है ऐसा कोई आचार्य कहते हैं। अनुबद्ध अर्थात् आगामी भवमें जानेवाला जिसका क्रोध है अर्थात् ऐसा उत्कट क्रोध है जो दूसरे भवमें साथ जाता है वह व्यक्ति अनुवद्ध रोष है, जिसका तप विग्रह अर्थात् कलहसे सम्बद्ध है वह 'विग्रह संसक्त तप' शब्दसे कहा जाता है। जिसका रोष और विग्रह अनुबद्ध है वह अनुबद्ध रोष विग्रह है। और जिसका तप परिग्रहसे अतीव सम्बद्ध है वह 'संसक्त तप' शब्दसे कहा जाता है । जो प्राणियोंमें दया नहीं करता तथा दूसरोंको पीड़ा पहुँचा कर भी पछताता नहीं है, वह आसुरी भावना करता है ।।१८५।।
सम्मोह भावनाको कहते हैं---
गा०-जो मिथ्यात्व या असंयमका उपदेश देता है, मार्गको दूषण लगानेवाला है और रत्नत्रयका विरोधी है, अज्ञानसे मूढ है वह सम्मोह भावनाको करता है ।।१८६।।
टी.-उम्मग्गदेसण अर्थात् जो मिथ्यादर्शन अथवा अविरतिका उपदेश देता है, आप्ताभासोंको और उनके द्वारा रचित शास्त्रोंको हितकारी कहता है, जो तत्त्वज्ञ है वह हिंसा आदि करते हुए भी पापसे लिप्त नहीं होता, ज्ञान सब पापको भस्म कर देता है ऐसा कहनेवाला हिंसा आदि पापका भय दूर करके जीवोंको हिंसा आदिमें लगाता है। वह उन्मार्गका उपदेशक है। यज्ञमें किया गया प्राणिवध पापका कारण नहीं है क्योंकि वेदमें कहा है जैसे दान पापका कारण नहीं है। प्रारम्भमें यज्ञके लिये ही पशुओंकी सृष्टि की गई थी। जो यज्ञ करते हैं, कराते हैं और पशु, ये सब मरकर मन्त्रके माहात्म्यसे स्वर्गमें जाते हैं। यह भी उन्मार्गका उपदेष्टा है । 'मग्गदूसणो'-संवर और निर्जराके तथा समस्त कर्मोंके विनाशके हेतु सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र रूप परिणाम मार्ग कहे जाते हैं; क्योंकि बाधारहित सुखके परम्परासे कारण हैं,
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