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भगवती आराधना प्राणकारणेऽन्ने प्राणोपचाराः । कार्यगतेन व्यपदेशेन कन्दर्पभावना, किल्बिषभावना, अभियोग्यभावना, असुरभावना, सम्मोहभावनाश्चेति पञ्चप्रकारा भावना निरूपिताः सर्वविद्भिः ॥१८१॥ तत्र कन्दर्पभावनानिरूपणायोत्तरगाथा
कंदप्पकुक्कुआइय चलसीलो णिच्चहासणकहोय ।
विब्भावितो य परं कंदप्पं भावणं कुणइ ॥१८२।। कन्दप्पकुक्कुआइयचलसीलो रागोद्रेकात्प्रहाससम्मिश्रोऽशिष्टवाक्प्रयोगः कंदर्पः । रागातिशयवतो इसतः परमुद्दिश्याशिष्टकायप्रयोगः कौत्कुच्यं एवं भवत मातरं करोमीति । कंदर्पकौत्कुच्याभ्यां चलसील:, णिच्चहासणकहो य' सदा हास्यकथाकथनोद्यतः । 'विन्भावितो य परं' परं विस्मापयन् कुहुकं किञ्चिदुपयॆ कंदप्पं भावणं कुणदि' कंदर्पभावनां करोति । रागोद्रेकजनितहासप्रवर्तितो वाग्योगः परमविस्मयकारी वा कंदर्पभावनेत्युच्यते । असकृत्प्रवर्तमानः ।।१८२॥ किल्बिषभावनाख्यानायाचष्टे
णाणस्स केवलीणं धम्मस्साइरिय सव्वसाहणं ।
___ माइय अवण्णवादी खिब्भिसियं भावणं कुणइ ।।१८३॥ णाणस्स इत्यादिकं । 'माई अवण्णवादी' इत्येताभ्यां प्रत्येकं संबन्धनीयम् । ज्ञानमिह श्रुतं परिगृहीतं तज्ञानविषया माया यस्य विद्यते स ज्ञानसंबन्धी मायावान् ज्ञानभक्तिरहितो बाह्यविनयवृत्तिः । 'केवलिणं'
माणके कारण अन्नमें प्राणका उपचार किया है। उन्हीं परिणामोंका कार्य जो कन्दर्प आदि गति है उसी कन्दर्पशब्दसे कन्दर्प भावना, किल्विष भावना, आभियोग्य भावना, असुर भावना, सम्मोह भावना ये पाँच प्रकार की भावनाएं सर्वज्ञ देवने कही हैं ।।१८१॥
आगेकी गाथा में कन्दर्प भावनाका कथन करते हैं
गा०-कन्दर्प कौत्कुच्य आदिसे चलशील, और सदा हास्य कथा करनेमें तत्पर, दूसरेको विस्मयमें डालने वाला कन्दर्प भावनाको करता है ।।१८२।।
टो०-रागकी.अत्यधिकतासे हँसीसे मिला हुआ असभ्य वचन बोलना कन्दर्प है। रागकी अधिकतासे हँसते हुए दूसरे को लक्ष्य करके शरीरसे कुचेष्टा करना कौत्कुच्य है। इन दोनोंको जो करता है, सदा हास्य कथा करता है, और कुछ कौतुक दिखाकर दूसरेको अचरजमें डा वह कन्दर्प भावना करता है । आशय यह है कि रागकी अधिकतासे होने वाले हास्य पूर्वक वचन योग और काय योग तथा दूसरेको कुतूहल पूर्वक अचरजमें डालना कन्दर्प भावना है ।।१८२।।
किल्विष भावनाको कहते हैं
गा-जो ज्ञानके, केवलियोंके, धर्मके, आचार्यों और सर्व साधुओंके विषयमें मायाचार करता है, झूठा दोष लगाता है वह किल्विषक भावनाको करता है ॥१८३।।
टीका-'माइय अवण्णवादी' ये दोनों पद प्रत्येकके साथ लगाना चाहिये । 'ज्ञान' से यहाँ श्रुतज्ञान ग्रहण किया है। जो श्रुतज्ञानके विषयमें माया रखता है वह ज्ञान सम्बन्धी मायाचारी है। ज्ञानमें भक्ति नहीं है, बाहरसे विनय करता है। केवलियोंमें आदर तो दिखलाता है किन्तु
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