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णामनिलः प्रकृष्यमाणो विशोषित कर्मपादपरसस्तमुन्मूलयतीति ॥१७५॥ श्रितेरपायस्थान परिहाराख्यानायोत्तरगाथा -
गणणा सह संलाओ कज्जं पड़ सेंसएहिं साहूहिं । मोण से मिच्छजणे भज्जं सण्णीसु सजणे य ।। १७६ ।।
'गणिणा सह' सावधारणमिदं गणिनैव सह । 'संलावो' प्रश्नप्रतिवचनप्रबन्धः, नान्यैः सह चिरभाषणं कार्यम् । आचार्येण सह संलापः शुभपरिणामस्य हेतुरित्यनुज्ञायते । इतरे तु प्रमादिनो यत्किञ्चिद् ब्रुवन्तोऽशुभपरिणामं विदध्युः । 'कज्जं पड़' कार्यं स्वं प्रति । 'सेस गेहि साधूहि' शेषैः साधुभिः सम्भाषणं कार्य, न प्रबन्धरूपा कथा कार्या । 'मोणं' मौनमेव । 'से' तस्य शुभपरिणामश्रेणीमारूढस्य । 'मिच्छजणे मिथ्यादृष्टिजने । स्वार्थे बद्धपरिकरस्य किं तेनानुपकारिणा हितोपदेशाग्राहिणा जनेन । 'भज्जं' भाज्यं विकल्प्यं मौनं । 'सणीसु' मिथ्यादृष्टिष्वप्युपशान्तेषु । 'सजणे य' स्वजने च । मिथ्यादृष्टौ अस्यामवस्थायां मदीयं वचनं श्रुत्वा सम्यग्दर्शनादिकमिमे गृह्णन्तीति यद्यस्ति सम्भावना ब्रूयाद् धर्मं न चेन्मौनमेव ॥ १७६॥
उपगतशुभ परिणामस्य प्रवृत्तिक्रममाचष्टे -
सिदिमारुहित्तु कारणपरिभुत्तं उवधिमणुवधिं सेज्जं । परिकम्मादिउवहदं वज्जित्ता विहरदि विदण्हू || १७७ ||
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'सिदिमारुहित्तु' शुभपरिणामश्रेणिमारुह्य । कारणभुत्तं किञ्चित्कारणमुपदिश्य श्रुतग्रहणं, परेषां वा ना प्राप्त होता है | सम्यग्ज्ञान रूपी वायुसे प्रेरित शुभ परिणाम रूप आग बढ़ती-बढ़ती कर्म रूपी वृक्षके रसको सुखाकर उसे जड़से नष्ट कर देती है ॥ १७५ ॥
श्रितिके विनाश स्थानोंसे बचनेके उपाय कहते हैं
गा० - शुभ परिणामोंकी श्रेणि पर आरूढ़ साधुको आचार्यके ही साथ वार्तालाप करना चाहिये । कार्य हो तो शेष साधुओंसे वार्तालाप करे । मिथ्यादृष्टिजनों में मौन रहे । शान्त परिणामी मिथ्यादृष्टियों में और अपने ज्ञातिजनोंमें मौन करे, नही करे ।। १७६ ।।
टी०-आचार्यके साथ ही 'संलाप' अर्थात् प्रश्नोत्तर आदि करना चाहिये । दूसरोंके साथ लम्बा वार्तालाप नहीं करना चाहिये । आचार्य के साथ संलाप शुभ परिणाम का कारण है इसलिये उसकी अनुज्ञा है । अन्य लोग प्रमादी होनेसे जो कुछ भी बोलकर अशुभ परिणाम कर देते हैं । शेष साधुओंके साथ संभाषण करना चाहिये किन्तु लम्बी कथा नहीं करना चाहिये । मिथ्यादृष्टि जनसे बात नहीं करना चाहिये क्योंकि वह तो स्वार्थ में डूबा है । हितोपदेशको नहीं सुनता । ऐसे अनुपकारी व्यक्तिसे क्या काम ? जो मिथ्यादृष्टि होते हुए भी शान्त परिणामी हैं और अपने ज्ञातिबन्धु हैं उनसे वार्तालाप किया जा सकता है । ये मेरे वचन सुनकर सम्यग्दर्शन आदिको ग्रहण करेंगे, यदि ऐसी सम्भावना है तो धर्मका उपदेश दें, नहीं तो मौन ही रहें ॥१७६॥
शुभ परिणामके धारी मुनिकी प्रवृत्तिका क्रम कहते हैं
गा० - क्रमका ज्ञाता मुनि शुभ परिणामों की श्रेणिपर चढ़कर किसी कारणवश व्यवहार आई परिग्रहको और ईषत् उपधिरूप वसतिको तथा जो लीपने-पोतने अयोग्य है, उसे त्याग कर तपश्चरण करता है ॥ १७७॥
टी० - शुभ परिणामोंकी परम्परासे जो मुनि ऊपर चढ़ रहा है वह ऐसे परिग्रहको त्याग
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