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विजयोदया टीका
१७९ अत्रैवं पदघटना अध्याहृतं कृत्वा 'इय दुट्ठकं मणो सो वारेदि अकंपं पडिट्ठवेदि य जो मणं सुभसंकम्पपयारमेव कुणदि सज्झायसण्णिहिदं काऊण इति' । एवं दुष्टं मनः स वारयति निश्चलं प्रतिष्ठापयति वा । यो मनः शुभसंकल्पप्रचारमेव करोति । स्वाध्याये सन्निहितं कृत्वेति सूत्रार्थः । तस्येत्थंभूतस्य श्रामण्यं समानता वा भवति ॥१४॥
जो विय विणिप्पडतं मणं णियत्तेदि सह विचारेण ।
णिग्गहदी य मणं जो करेदि अदिलज्जियं च मणं ।।१४२।। 'जो वि य' यश्चापि । 'विणिप्पडतं' वि शब्दो नानार्थः, निर् इत्युपसर्गो बहिर्भावे, पडिर्गमनार्थः । ततोऽयमर्थोऽस्य पदस्य विचित्रं बहिनिर्गच्छन्निवतयेदिति । ननु च सत्यभ्यंतरे कस्मिश्चित्तदपेक्षो भवति बहिर्भावस्ततः किम् ? अभ्यन्तरमिह गृहीतं रत्नत्रयं । कथमस्याभ्यन्तरता? आत्मनो निजस्वरूपमिति । रागकोपादयस्तु चारित्रमोहोदयजा भावाः परिणामा बाह्या मिथ्यात्वासंयमकषायादिभेदेन विचित्रास्तदभिमुखतया प्रवृत्त:। "णियत्तेदि सह विचारेण जो' इति शेषः
कोऽसौ विचारः ? उच्यते-इदं तत्त्वाश्रद्धानं, इयं च हिंसादिपरिणतिरयं वा क्रोधादिको भावो मया परिणामिकारणभूतेन निर्वय॑मानो जातिजरामरणपरिणामरूपानन्तसंसारकारणानां कर्मणां मूलोत्तरप्रकृतिभेदेन संख्यात विकल्पानां, स्थितिविशेषमात्मप्रदेशेष्ववस्थानरूपं, तीवमध्यममन्दरूपाश्रद्धानासंयमकषायपरि
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इस प्रकार जो दुष्ट मनका निवारण करता है और उसे श्रद्धानादिमें स्थिर करता है तथा जो मनको शुभसंकल्पोंमें ही लगाता है और स्वाध्यायमें प्रवत्त रहता है उसके श्रामण्य अथवा समता होती है ॥१४॥
गा-जो भी रत्नत्रयसे च्युत होकर विचित्र रागादिमें जानेवाले मनको विचारोंके साथ हटाता है, और जो मनको निन्दा गर्दा के द्वारा निगृहीत करता है-उसकी निन्दा करता है, और मनको अति लज्जित करता है उसके सामण्ण होता है ।।१४२।।
टो.-'विणिप्पडतं' में 'वि' शब्दका अर्थ अनेक है, 'निर' यह उपसर्ग बहिर्भावके अर्थमें है और 'पडि' का अर्थ गमन है । अतः इस पदका अर्थ है अनेक बाह्य विषयोंमें जानेवाले मनको रोके ।
शङ्का-किसी अभ्यन्तरके होनेपर उसको अपेक्षा बहिर्भाव होता है यहाँ वह अभ्यन्तर कौन है ?
समाधान-रत्नत्रय है और वह आत्माका निजस्वरूप होनेसे अभ्यन्तर है। राग-कोप आदि तो चारिनमोहके उदयसे होनेवाले भाव हैं, वे बाह्य हैं । तथा मिथ्यात्व, असंयम और कषाय आदिके भेदसे नाना हैं । उनके अभिमुखरूपसे प्रवृत्तिको जो विचारोंसे रोकता है।
शंका-वह विचार कौन है ?
समाधान-यह जो तत्त्वका अश्रद्धान है, अथवा हिंसादिरूप परिणति है, अथवा क्रोधादि भाव है, इन रूप मैं परिणमन करता हूँ तो ये हिंसादिरूप परिणाम जन्म जरा मरण परिणामरूप अनन्त संसारके कारण जो कर्म है, जो मूलप्रकृति और उत्तर प्रकृतिके भेदसे संख्यात भेदवाले हैं,
१. संख्यातासंख्यात-आ० मु० ।
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