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विजयोदया टीका
१९७ ममेदं वसत्यादिकं अहमस्य स्वामीति संकल्परहितः अनियतविहारी भवति इति संक्ष पतः प्रतिपत्तव्यः । विहारो गदो ॥१५५॥ अनियतवासादनन्तरं परिणाम प्रतिपादयितुं उत्तरगाथा
अणुपालिदो य दीहो परियाओ वायणा य मे दिण्णा ।
णिप्पादिदा य सिस्सा सेयं खलु अप्पणो कादु॥१५६॥ 'अणुपालिवो-य' अनुपालितश्च सूत्रानुसारेण रक्षितः । 'दोहो' दीर्घः चिरकालप्रवृत्तिः । 'परियाओ' पर्यायः ज्ञानदर्शनचारित्रतपोरूपः । 'वायणा वि' वाचनापि । 'मे' मया। 'विण्णा' दत्ता । "णिप्पादिदा य सिस्सा' निष्पादिताश्च शिष्याः । 'सेयं' श्रेयः हितं । 'अप्पणो काउ' आत्मनः कतुं 'जुत्तं' इति शेषः । एतदुक्तं भवति । ज्ञानदर्शनचारित्रेषु चिरकालं परिणतोऽस्मि। सूत्रानुसारेण परेभ्यश्च निरवद्यग्रन्थार्थदानं च कृतं । शिष्याश्च व्युत्पन्नाः संवृत्ताः । एवं स्वपरोपकारक्रियया गतः कालः । इतः प्रभृत्यात्मन एव हितं कतु न्याय्यमिति चेतःप्रणिधानं इह परिणामशब्देनोच्यते । तथा चोक्तम्
अप्पहियं कायव्वं जइ सक्कइ परिहियं च कायव्वं ।
अप्पहियपरहियादो अप्पहिदं सुछ कावव्वं ॥[ ] किण्ण अघालंदविघी भत्तपइण्णेगिणी य परिहारो।
पादोवगमणजिणकप्पियं च विहरामि पडिवण्णो ॥१५७|| 'किं णु अधालंदविधि' । कोऽसावथालन्दविधिः ? उच्यते-परिणामः सामर्थ्य, गुरुविसर्जनं. प्रमाणं, स्थापना, आचारमार्गणा, अथालन्दमासकल्पश्च । गृहीतार्थाः कृतकरणाः, परीषहोपसर्गजये समर्थाः, अनिवसति आदि मेरी है और मैं इसका स्वामी हूं इस प्रकारके संकल्पसे रहित है उसे संक्षेपमें अनियत विहारी जानना । इस प्रकार अनियत विहार समाप्त हुआ ॥१५५।।
अनियत वासके अनन्तर परिणामका कथन करनेके लिए गाथा
गा०-दीर्घकाल तक ज्ञान दर्शन चारित्र और तप रूप पर्यायका मैंने शास्त्रानुसार पालन किया। और मैंने वाचना भी दी और शिष्योंको तैयार किया। अब निश्चयसे । करना उचित है ॥१५६।। ।
टोका-इसका अभिप्राय यह है कि ज्ञानदर्शन चारित्रमें मैं चिरकालतक रमा हूँ । तथा दूसरोंको आगमके अनुसार निर्दोष ग्रन्थ और उसके अर्थका दान किया है। शिष्य भी व्युत्पन्न हो गये । इस प्रकार अपना और परका उपकार करने में काल बीता। आजसे अपना ही हित करना उचित है । इस प्रकारके मनोभावको यहाँ परिणाम शब्दसे कहा है। कहा भी है-'अपना हित करना चाहिए। यदि शक्ति हो तो परका हित भी करना चाहिए। किन्तु आत्महित और परहित में से आत्महित अच्छे प्रकार करना चाहिए ॥१५६॥
- गा-क्या अथालन्द विधि, भक्त प्रतिज्ञा, इंगिनीमरण, परिहार विशुद्धि चारित्र, पादोपगमन अथवा जिनकल्पको धारण करके मैं विहार करूँ॥१५७॥
टी०-अथालन्दविधि क्या है, यह कहते हैं-परिणाम, सामर्थ्य, गुरुके द्वारा विसर्जन, प्रमाण, स्थापना, आचार मार्गणा और अथालन्दकमासकल्प यह क्रम है । जो मुनि शास्त्रज्ञ, करने
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