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भगवती आराधना पञ्चविधविवेकप्रख्यापनायोद्यता गाथा
इंदियकसायउवधीण भत्तपाणस्स चावि देहस्स ।
एस विवेगो भणिदो पंचविधो दव्वभावगदो ।।१७०।। 'इंदियकसाय' इति । इन्द्रियविवेकः, कषायबिवेकः, भक्तपान विवेकः, उपधिविवेकः, देहविवेकः इति एष विवेकः पञ्चप्रकारो निरूपितः पूर्वागमेषु । स पुनः पञ्च प्रकारोऽपि द्विविधः । द्रव्यकृतो भावकृत इति । रूपादिविषयेषु चक्षरादीनामादरेण कोपेन वा अप्रवर्तनं । इदं पश्यामि शृणोमीति वा । तथा तस्या निविडकुचतट पश्यामि, नितम्बरोमराजि वा विलोकयामि, पथुतरं जघनं स्पृशामि, कलं गीतं सावधानं शृणोमि, मुखकमलपरिमलं जिघ्रामि, बिम्बाधरं समास्वादयामि इति वचनानुच्चारणं वा द्रव्यत इन्द्रियविवेकः । भावत इन्द्रियविवेको नाम जातेऽपि विषयविषयिसम्बन्धे रूपादिगोचरस्य विज्ञानस्य भावेन्द्रियाभिधानस्य रागकोपाभ्यां विवेचनं, रागकोपसहचारिरूपादिविषयमानसज्ञानापरिणतिर्वा । द्रव्यतः कपायविवेको नाम कायेन वाचा चेति द्विविधः । भ्रूलतासङ्कोचनं, पाटलेक्षणता, अधरावमईनं, शस्त्रनिकटीकरण, इत्यादिकायव्यापाराकरणं । हन्मि, ताडयामि, शूलमारोपयामि इत्यादिवचनाप्रयोगश्च परपरिभवादिनिमित्तचित्तकलङ्काभावो भावतः क्रोधविवेकः । तथा मानकषायविवेकोऽपि वाक्कायाभ्यां द्विविधः । गात्राणां स्तब्धताकरणं, शिरस उन्नमनं, उच्चासनारोहणादिकं च यन्मानसूचनपरं तस्य कायव्यापारस्याकरणं । मत्तः को वा श्रुतपारगः सुचरितः सुतपोधनश्चेति वचनाप्रयोगश्च । एवमेवतेभ्योऽहं प्रकृष्ट इति मनसाहकारवर्जनं भावतो
है ।।१६९॥
पाँच प्रकारके विवेकका कथन करते हैं
गा०-इन्द्रिय विवेक, कषाय विवेक, उपधिविवेक, भक्तपान विवेक और देहका विवेक इस प्रकार यह विवेक पाँच प्रकारका पूर्वागम में कहा है। तथा यह पाँच प्रकारका विवेक द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकार है ॥१७०॥
टी-रूप आदि विषयोंमें चक्षु आदि इन्द्रियोंका आदर भावसे या क्रोधवश प्रवृत्ति न करना, यह देखता हुँ, अथवा यह सुनता हूँ, उसके घने स्तनोंको देखता हूं, अथवा नितम्ब और रोमपंक्तिको देखता हूँ, स्थूल जघनको स्पर्श करता हूँ, मनोहर गीत सावधानता पूर्वक सुनता हूँ, मुख रूपी कमलकी सुगन्ध सूघता हूँ, ओष्ठका रसपान करता हूँ, इत्यादि वचनोंका उच्चारण न करना द्रव्य इन्द्रिय विवेक है । विषय और विषयी अर्थात् पदार्थ और इन्द्रियका सम्बन्ध होने पर भी रूपादिका जो ज्ञान होता है जिसे भावेन्द्रिय कहते हैं, उस ज्ञानके होने पर भी राग द्वेष न करना अथवा राग द्वषके सहचारी रूपादि विषय रूपसे मानसज्ञानका परिणत न होना भाव इन्द्रिय विवेक है। द्रव्य कषाय विवेक के दो भेद हैं शरीरसे और वचन से । भौंको संकोचना, आँखोंका लाल होना, ओठ काटना, शस्त्र उठाना इत्यादि काय व्यापारका न करना काय द्रव्य कषाय विवेक है । मारता हूँ, ताड़न करता हूँ, सूली पर चढ़ाता हूँ इत्यादि वचन न बोलना वचन क्रोध कषाय विवेक है। दूसरे के द्वारा किये गये तिरस्कार आदिके निमित्तसे चित्तमें मलिनताका न होना भावसे क्रोध विवेक है। तथा मान कषाय विवेकके भी वचन और कायकी अपेक्षा दो भेद हैं । शरीरको स्तब्ध करना, सिर को ऊँचा करना, उच्चासन पर बैठना आदि जो मान सूचक काय व्यापार हैं उनका न करना काय मान कषाय विवेक है। मुझसे बड़ा कौन शास्त्रका पंडित है, चारित्रवान और तपस्वी हैं, इस प्रकारके वचन न बोलना वचन मान कषाय विवेक है। इसी
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