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विजयोदया टीका
२११ गृहीता। सा हि परिग्रहत्यागे प्रवर्तयत्यात्मानमिति ।।१६४।। वसत्यादिकं तहि त्याज्यतया नोपदिष्टमिति आशङ्किते इति तत्त्यागमुपदिशति
अप्पपरियम्म उवधिं बहुपरियम्मं च दोवि वज्जेइ ।
सेज्जा संथारादी उस्सग्गपदं गवेसंतो ॥१६५।। 'अप्पपरियम्म उवधि' अल्पपरिकर्म निरीक्षणप्रमार्जनविधूननादिकं यस्मिन्तं परिग्रहं । 'बहु' महत् परिकर्म यत्र तं च । 'दो वि' द्वावपि 'वज्जेदि' वर्जयति मनोवाक्कायैः । 'सेज्जासंथारादी' वसतिसंस्तरादिकं । 'उस्सग्गपदं' उत्सर्जनं त्यागः तदेव पदं । परिग्रहत्यागपदान्वेषणकारीति यावत् । गाथाद्वयेनातिक्रान्तेन द्रव्योपधित्यागो व्याख्यातः । इयता परिसमाप्तः परिग्रहत्यागः ।।१६५।।
पंचविहं जे सुद्धिं अपाविदूण मरणमुवण मन्ति ।
पंचविहं च विवेगं ते खु समाधि ण पावन्ति ।।१६६।।
‘पचंविहं जे सुद्धि' इत्यादिना कि प्रतिपाद्यते पूर्वमसूचितमिति । अत्रोच्यते-योग्योपादनमेवायोग्यत्यागस्तत्परिहार इत्युपधित्याग एवाख्यायते उत्तरग्रन्थेनापि । 'पंचविहं' पञ्चप्रकारां । 'सुद्धि' शुद्धि । 'अपाविदूण' अप्राप्य । 'जे' ये । 'मरणं' मृति । 'उवणमंति' प्राप्नुवन्ति । 'पंचविहं' पञ्चविधं च 'विवेगं' विवेकं, 'परिहरणं' पृथग्भावं, अप्राप्य मृतिमुपयान्ति । खु शब्द एवकारार्थः । स च क्रियापदात्परतो योज्यः । मन-वचन-कायकी वृत्तिको विशुद्धलेश्या कहा है; क्योंकि वह जीवको परिग्रहके त्यागमें प्रवृत्त करती है ॥१६॥ ___यहाँ कोई शंका करता है कि वसति आदिको तो त्याज्य नहीं कहा ? इससे उसके त्यागका उपदेश करते हैं
गा०—परिग्रहत्याग पदका अन्वेषण करनेवाला साधु अल्पपरिकर्मवाले और बहुत परिकर्मवाले दोनों ही प्रकारके परिग्रहोंको जिनमें वसति संस्तर आदि भी हैं, मन-वचन-कायसे त्याग देता है ॥१६५।।
टो०-जिसमें देखना, साफ करना, झाड़ना आदि कम करना होता है वह परिग्रह अल्पपरिकर्मवाला होता है। और जिसमें यह बहुत करना होता है वह बहुत परिकर्मवाला है। परिग्रहत्यागपदका खोजी साधु दोनोंको ही मन-वचन-कायसे त्यागता है । अतः वसति संस्तर आदि भी त्याग देता है । इन दो गाथाओंसे द्रव्यपरिग्रहके त्यागका कथन किया । यहाँ तक परिग्रहत्यागका प्रकरण समाप्त होता है ।।१६५।।
- गा०-जो पाँच प्रकारकी शुद्धियोंको और पाँच प्रकारके विवेकको प्राप्त किये विना मरणको प्राप्त होते हैं, वे समाधिको नहीं ही प्राप्त होते हैं ।।१६६।।
ट्रो०-शंका-'पञ्चविहं जे सुद्धि' इत्यादिके द्वारा पहले सूचित किये विना क्या कह
__समाधान-योग्यका ग्रहण ही अयोग्यका त्याग है । अतः आगेके ग्रन्थसे भी परिग्रहका त्याग ही कहा है। जो पाँच प्रकारकी शुद्धि और पाँच प्रकारके विवेक अर्थात् भिन्नपनेको प्राप्त किये विना मरते हैं वे समाधिको प्राप्त नहीं ही होते । गाथामें आये 'खु' शब्दका अर्थ 'ही' है और
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