________________
विजयोदया टीका
कस्य शरीरपरिकर्म कथं कुरुतः ? कि च स्वयं सरागो वैराग्यं परस्य संपादयत्येवेति न नियोगोऽस्ति । 'गाणचरणदंसण विसुद्धा' ज्ञानचारित्रदर्शनेषु विशुद्धाः निर्मलाः । जीवादियाथात्म्यगोचरता ज्ञानग्य शुद्धिः । दर्शनस्यापि समीचीनज्ञानसहभाविता, अरक्तद्विष्टता च चारित्रशुद्धिः । शुद्धज्ञानचरणदर्शनशुद्धाःचारित्रशुद्धा भण्यन्ते । यथा प्रकृष्टशुक्लगुणयोगाच्छुक्लतम इत्युच्यते पटादिः ॥१६१॥
ताव खमं मे कादं सरीरणिक्खेवणं विदुपसत्थं ।
समयपडायाहरणं भत्तपइण्णं णियमजण्णं ॥१६२।। 'ताव खमं मे काउं' तावद्युक्तं कत्तु मम । किं ? 'सरीरणिखेवणं' शरीरनिक्षेपणं शरीरत्यजनं । विदुपसत्थं विद्वज्जनस्तुतं आत्महितत्वात् । 'समयपडागाहरणं' समयः सिद्धान्तः, तस्मिन् कीर्तिता पताका आराधना पताकेव पताका उपमार्थः । यथा पताका वस्त्रादिरचिता जयादिकं प्रकटयति । एवमियं आराधनापि भवनिर्मुक्ति प्रकटयति । तस्या हरणं ग्रहणं । 'भत्तपइण्णं' भक्तप्रत्याख्यानं 'नियमजण्णं' व्रतयज्ञं । ननु शरीरत्यागोऽन्यः, अन्या ज्ञान-श्रद्धान-तपःसु परिणतिरन्यद् भक्तत्यजनं, अन्यानि च व्रतानि तत्कथं समानाधिकरणनिर्देशः ? अत्रोच्यते-प्रत्येकमभिसम्बन्धः कार्यः । 'ताव खमं मे काउं' इत्यनेन शरीरनिक्खेवणं इत्यादीनां । ततोऽयमर्थः-शरीरत्यजनं, सम्यग्दर्शनादिपरिणमनं, भक्तप्रत्याख्यानं, व्रतयज्ञश्च तावत्क मम युक्तमिति ॥१६२॥
करता । जो आचार्य रसप्रेमी और सुख प्रेमी हैं वे सल्लेखना करनेवाले आराधकके शरीरकी सेवा कैसे करेंगे ? दूसरे, जो स्वयं सरागी है वह दूसरेको वैराग्य उत्पन्न कराता ही ऐसा कोई नियम नहीं है । तथा आचार्य ज्ञान, दर्शन और चारित्रमें विशुद्ध होना चाहिए । जीवादिके यथार्थ स्वरूपको जानना ज्ञानको शुद्धि है। समीचीन ज्ञानका सहभावी होना दर्शनकी शुद्धि है। और राग-द्वेषका न होना चारित्रकी शुद्धि है । जिनका ज्ञान दर्शन चारित्र शुद्ध होता है वे शुद्ध ज्ञान दर्शन चारित्र वाले कहे जाते हैं। जैसे उत्कृष्ट शुक्ल गुणके सम्बन्धसे वस्त्र आदि ‘शुक्लतम'अत्यन्त सफेद कहे जाते हैं ।।१६१॥
___ गा०-तब तक मुझे शरीरका त्याग, विद्वानोंसे स्तुत, आगममें कही गई आराधना रूपी पताकाका ग्रहण, व्रत यज्ञ तथा भक्त प्रत्याख्यान करना युक्त है ।।१६२।।।
टी०-भक्त प्रत्याख्यान तब तक मुझे करना उचित है, यह पूर्व गाथाओंसे सम्बद्ध है । यह भक्त प्रत्याख्यान शरीरके त्यागरूप है क्योंकि शरीरको त्यागनेके लिए ही किया जाता हैं । विद्वानोंसे प्रशंसनीय है क्योंकि आत्माके हित रूप है। तथा समय अर्थात् सिद्धान्तमें आराधनाको पताका कहा है । जैसे वस्त्रादिसे बनी पताका जयको प्रकट करती है वैसे ही यह आराधना भी संसारसे निर्मुक्तिको प्रकट करती है । भक्त प्रत्याख्यान उस पताको ग्रहण करने रूप है।
शंका-शरीरका त्याग अन्य है, ज्ञान श्रद्धान और तप करना अन्य है, भोजनका त्याग अन्य है और व्रत अन्य हैं । ये सब भिन्न हैं तब कैसे इनका समानाधिकरण रूपसे निर्देश किया है ?
समाधान-'तब तक मुझे करना युक्त है । इसके साथ शरीर त्याग आदि प्रत्येकका सम्बन्ध करना चाहिए । तव ऐसा अर्थ होता है-शरीरका त्याग, सम्यग्दर्शन आदि रूप परिणमन, भक्त प्रत्याख्यान और व्रतयज्ञ मुझे तब तक करना युक्त है ।।१६२।।
२७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org